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________________ प्रियदशिनी टोका अ० १४ नन्ददत्त-नन्दप्रियादिपइजीपचरितम् ८२३ पमसागरोपमादि-कालव्यापि दुख नारकादिक येभ्यस्ते तया। भवतु क्षणमानसौख्यम् , परन्तु तच्चेत् प्रकृष्ट भवेत् , तदा राज्यार्थिवद् धान्यार्थिगच्च प्रकष्टसुखार्थिना पहुकालव्यापि दुःखमपि ग्राह्य स्यादिति तन्निराकर्तुमाह-'अणिकामसुक्खा' इत्यादि-ते कामभोगा हि अनिकामसौख्या:-अनिझामम्-अपकृप्टतुच्छ सौख्य-सुख येभ्यस्ते तथा, पुनश्च-भकामदु खा-पकाम प्रचुर दुःख येभ्यस्ते तथा । प्रामदुःस-असातवेदनीयदुःखजनित दशविध-वेदनारूप नारक दुःखम्, तथैनासातवेदनीयननितमनन्त-जन्ममरणच्छेदनभेदनवेदनारूप नरकनैगोदिक दुःख च। तथा-ससारमोक्षस्य विपक्षभूताः ससार:-चतुर्गतिकभनभ्रमण तस्माद् मोक्षः पृथग्भनन तस्य विपक्षभूताः-शत्रुभूताः, समारपरिभ्रमणपदका इत्यर्थः । पुनश्चखनिःआकरः अनर्यानाम् ऐहलौकिकपारलौकिकदुःखानाम् ॥ अय भावः-एते कालतक जीवको नरक निगोदादिकके दुःख ही भोगने पड़ते हैं। यदि कोई यहा ऐसी आशका करे कि राज्यार्थीकी तरह अथवा धान्यार्थीकी तरह प्र. कृष्ट सुखार्थीके लिये यह काल व्यापी दुःख भी ग्राह्य हो जाता है जबकि वह क्षणमात्र सुख भी प्रकृष्ट-अत्यधिक हो तो। ऐसी आशकाके समाधान निमित्त कहते हैं कि ये कामभोग (अनिगामसुक्खा-अनिकामसौख्या) तुच्छ सुख देनेवाले हैं किन्तु निकाम-अत्यत सुखप्रद नहीं है, तया (पगामदुक्खा-प्रकामदुःखाः ) अत्यन्त दुःख देने वाले हैं नरकके दश प्रकारकी क्षेत्र वेदना रूप अत्यत दुःखोंको तथा निगोदके जन्ममरण छेदन भेदनके अनन्त दुःखोको देनेवाले हैं, (ससारमोक्खस्स विपक्खभूयाससारमोक्षस्य विपक्षभूता.) इसीलिये ये कामभोग ससारसे मुक्त होनेमे अन्तरायरूप है । तया (अणत्थाणखाणी-अनर्थाना खनिः) ऐहलौकिक अनों की ये खान है । तात्पर्य इसका यह है कि ये कामभोग काल एव જીવને નરક નિદાદિકના હુ એને ભોગવવા પડે છે, જે કોઈ અહી એવી આશકા કરે કે, રાજ્યાર્થીની માફક અથવા ધાન્યાથની માફક પ્રકૃણ સુખાર્થીને માટે બહુકાળ વ્યાપિ દુ ખ પણ સ્વીકાર્ય હોય છે જ્યારે કે, ક્ષણ માત્ર સુખ પણ અત્યધિક હોય તે આવી આશકાના સમાધાન નિમિત્ત કહે છે કે, मे मत अनिकामसुक्खा-अनिकामसौरथा तु२७ सुप मापना२ छ ५२४ सत्यत सुमन नथी, प्रगामदुस्खा-प्रकामदु खा सत्यतम मापना२ छे નરકની દશ પ્રકારની ક્ષેત્ર વેદનારૂપ અત્યત દુબેને તથા નિગદના જન્મ, भरण, छेन, नना मनतभाने मापनार के ससारमोक्सास विपक्व भूया-ससारमोक्षस्य विपक्षभूतो माथी १ मे शत मत ससारथी भुत यामा मत२।५ 3५ छ अणत्थाण साणी-अनर्थाना खनि तथा मा at
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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