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________________ प्रियदर्शिनी टीका २ गा ४२-४३ अज्ञानपरीपहाय 'निरहग' इत्यादि। निरर्थम् व्यर्थम् मि अह मैथुनात् कामसुखाद् पिरता निवृत्तः। प्राणातिपातादिविरमण निहाय यन्मैथुनमात्रोपादान तत्तस्य दुस्त्यजत्योधनार्थम् । दुस्त्यजमैथुनात् प्रतिनिवर्तनेनाह दुष्कर कार्य व्यर्थमेन कृतमानिति भावः। तथा-निरर्थक सुसट्टतः = इन्द्रियनोइन्द्रियव्यापारनिरोपेन मुष्टुसरयुक्तः । योऽह कल्याण%D शुभ, पापकम्-अशुभ, धर्म-वस्तुस्सभारं साक्षात्-परिस्फुट यया स्यात् तथा, ना. मिजानामि-अवध्यादिज्ञानाभावेन प्रत्यक्षतया सर्वथा न जानामीत्यर्थः । इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् । 'इइ भिक्खू न चिंतए' इत्युत्तरगावा(४४)स्थेन सह सम्बन्धः । मतिश्रुतरूप परोक्षज्ञान को आश्रित कर प्रज्ञापरीपद का सूत्रकारने यह वर्णन किया है । अव अवधि आदि रूप जो प्रत्यक्ष ज्ञान हैं उनके अभावरूप इकोसवा अज्ञानपरीपह का वर्णन किया जाता है 'निरहगमि' इत्यादि। अन्वयार्थ-(निरङ्कगमि मेहुणाओ विरओ- निरर्थकमह मैथुनात् विरतः ) व्यर्थ ही मैं कामसुख से विरक्त हुआ ह । (सुसवुडो-सुसवृतः) व्यर्थ ही मैंने इन्द्रियो एव मन को अपने अभिलपित विपयो से हटाकर सुसवृत किया है। (जो-यः) जो मै अभीतक भी (कल्लाण पावग धम्म सक्ख नाभिजाणामि-करयाण पापक धम्मै साक्षात् नाभिजानामि) शुभ तथा अशुभ वस्तुस्वभावरूप धर्म को अवधि आदि प्रत्यक्ष ज्ञानों के अभाव में साक्षात्-स्पष्टरूप से नहीं जानता है । इस प्रकार भिक्षु विचार न करे । " इइ भिक्खू न चितए" यह आगे गाया चौवालीस ४४वी में कहा गया वाक्य यहां योजित कर लेना चाहिये। મતિશ્રત રૂપ પક્ષજ્ઞાનને આશ્રિત કરી પ્રજ્ઞાપરીષહનું સૂત્રકારે આ વર્ણન કરેલ છે હવે અવધિ આદિરૂપ જે પ્રત્યક્ષજ્ઞાન છે તેના અભાવરૂપ सपीसभा मज्ञानपरीषनु पर्वा न ४२पामा आवे छे–'निरहगमि' त्या सन्क्या-निरहगमि मेहुणाओ विरओ-निरर्थकमह मैथुनात् विरत आमसुमने छस नमा वि२४त मन्या छु सुसवुडो-सुसवृत छन्द्रयो मन भननेतना અભિલર્ષિત વિષયેથી હટાવીને મે વ્યર્થે સુસ વૃત કરેલ છે, જે આજ સુધી પણ कल्लाण पावग धम्म सक्ख नोभिजाणामि-कल्याण पापक धर्म साक्षात् नाभिનાનાભિ શુભ તથા અશુભ વસ્તુ સ્વભાવરૂપ ધર્મને અવધિ આદિ પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનના અભાવથી સાક્ષા-સ્પષ્ટરૂપથી જાણતું નથી. આ પ્રકારને વિચાર ભિક્ષુ ન ४२ इइ भिक्खू न चिंवए ! माग मतावाभा मा ४४ भी यानु
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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