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________________ ४९६ उचरावयारले नाणस्स नाणिणं चिय, निंदा पदोसमच्छरेहि य । उपघायणविग्वेहि, नाणग्यं वज्झए कम्म ॥१॥" छाया-ज्ञानस्य ज्ञानिना चैव, निन्दामद्वेपमत्सरैश्च । उपघातनविघ्नैः, ज्ञानघ्न वध्यते कम ॥१॥ येन यस्मात् कारणात् , केनचिन-जिज्ञामुना, कास्मश्चित् जीवादितत्व विपये, पृष्टोऽह नाभिजानामि-अज्ञानाशात् प्रश्नस्योत्तर कर्तुं न शक्नोमीत्ययः । पूर्वोपार्जित-ज्ञानावरणीय-कर्मोदयात् मया ज्ञान न लभ्यते, अतः प्रश्नोत्तर कतु. मसमर्यो भवामीति भावः । उक्तञ्च(जेण-येन ) जिसके कारण से ( केणइ-केनचित् ) किसी जिज्ञासु के द्वारा (कण्हुइ-कस्मिश्चित्) किसी भी जीवादिक तत्त्व के विषय में (पुट्ठो-पृष्टः) पूछे जाने पर (अह) मैं (नाभिजाणामि-नाभिजानामि) कुछ भी नहीं जान सकता है, अर्थात् अज्ञानवश उसके प्रश्न का कुछ भी उत्तर नहीं दे सकता हु। कहा भी है "नाणस्स नाणिण चिय, निंदा पदोसमच्छरेहिं य। उवघायण विग्घेहि, नाणग्य वज्झए कम्म ॥१॥" ज्ञान एव ज्ञानियों की निंदा करने से, उनमें देषवुद्धि रखने से, उनके साथ मत्सरभाव रखने से, उनका उपघात करने से अथवा ज्ञान के साधनों मे अथवा ज्ञानियो के ज्ञानोपार्जन में विघ्न करने से जीव ज्ञाननाशक कर्म का वध करता है। माहि भानु ल ४२ छ जेण-येन सेना रथी केणइ केनचित् आई ज्ञासु द्वारा कण्हुइ-कस्मिंश्चित् ५५ Ans तत्पना विषयमा पुट्ठो-पृष्ट पुछपामा मापाथी अह हु नाभिजाणामि-नाभिजानामि तयुत। नया અર્થાત્ અજ્ઞાનવશ એમના પ્રશ્નને કાઈ પણ ઉત્તર આપી શકતા નથી કહ્યું પણ છે કે – "नाणस्स नाणिण चिय, निंदा पदोसमच्छरेहि य । उवधायण विग्धेहि, नाणग्ध वज्झए कम्म ॥" જ્ઞાન અને શાનીની નિદા કરવાથી, એમનામાં છેષબુદ્ધિ રાખવાથી, એની સાથે મત્સરભાવ રાખવાથી, એને ઉપઘાત કરવાથી અથવા જ્ઞાનના સાધ નેમ અથવા જ્ઞાનીયોના જ્ઞાનોપાર્જનમા વિદ્ધ કરવાથી જીવ જ્ઞાનનાશક કર્મને બધ કરે છે
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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