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________________ રહ उत्तराध्ययनले अथ ग्रामनगरादिभ्यो यहि क्वचिदटव्यादिमार्ग विहरन् मुनिर्यदि पिपासया पीडितः स्यात् तदाऽपि तत्परीपहः सोढव्य इत्याह-- मूलम् छिन्नावाएसु पथेसु, ओउरे सुपिवासिए । परिसुकमुहादीणे, त तितिक्खे परीसह ॥५॥ छाया-छिन्नापातेषु पयिषु आतुरः सुपिपासिवः । परिशुष्कमुखादीन त तितिक्षेत परीपहम् ॥ ५॥ टीका-'छिन्नावाएसु' इत्यादि । छिन्नापातेपु-छिन्ना अपगता, जापात:-जनाना गमनागमनरूपः संचारा यत्र तेषु, पथिपु-मार्गेपु गच्छनिति शेपः, आतुर. तृपया व्याप्तकायः, अत एवं सुपिपासितः अतिशयेन तृपितः, अत एव परिशुष्कमुखादीना परीशुष्कमुखः गत निष्ठीवनतया शुष्कतालुरसनोष्ठः, स चासापदीनश्च परिशुष्पमुखादीन., परिशुष्क ग्राम नगर आदि से बाहर किसी अटवी आदि के मार्ग मे विचरते हुए साधु को यदि पिपासा से आकुलता उत्पन्न हो जावे तो भी उस उस द्वितीय क्षुधापरीपद को सहन करना चाहिये यह बात इस नीचे की गाथा द्वारा सूत्रकार प्रकट करते है-'छिन्नावाएसु' इत्यादि। __अन्वयार्थ-(छिन्नावाएसु-छिन्नापातेपु) जिन मार्गों मेजनो का आवाग मनरूप सचार छिन्न हो गया है अर्थात्-नहीं होता है ऐसे (पथेसु-पथिषु) मार्गों में सचरण अर्थात्-विचरण करता हुआ साधु (सुपिवासिए आउरे-सुपिपासितः आतुर.) यदि पिपासा से व्याप्त होकर आतुरअत्यत पीडित हो जाता है और इसीसे (परिसुक्कमुहादीणे-परिशुष्कमुखादीन.) जिसके मुख का थूक तक भी सूखचुका है और ऐसा ગ્રામ, નગર વગેરેથી બહારના રસ્તા ઉપર વિચરતા સાધુને માર્ગમાં તર સની આકુળતા ઉત્પન્ન થાય તે પણ તેણે એ બીજા સુધાપરીષહને સહન કરવી नये २ पात नीयनी था द्वारा सूत्रा२ ४८ ४२ छे छिन्नावाएसु-छत्या। सन्क्याथ---छिन्नावाएसु-छिन्नापातेषु भागमा मासाना अपागमन३५ सया ५५ गयो साय अर्थात् नया थापा पथेसु-पथिषु भाभा सया२५५ अर्थात् विन्यारए ४२नार साधु सुपिवासिए आउरे-सुपिपासित आतुर थाना तरसथी व्याण मनी सत्यत पात तय छ भने मेथी परिसुक्कमुहावीण -परिशुष्कमुखादीन ना भादाभानु थु ४ प सुहाई नय छ मेवी ।
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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