SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा ५ अविनीतप्रवृत्तौ सुकरदृष्टान्त ४५ ननु दुःशील सकलानर्थमूल चेत् जविनीतेन कथ तर्हि तनानुरज्यते ? इत्याकाङ्क्षाया दुःशील्रतिकारण सदृष्टान्त प्रतिनधयितुमाह — मूलम् - कणकुंडग चइत्तां ण, विहे भुजई सूर्यरो | एव सील चैइत्ती णं, दुस्सीले रमई मिए ॥ ५ ॥ छाया कणकुण्डक त्यक्त्वा यलु, पिष्टमुडे सूकरः । एनशील त्यक्तना खलु, दुःशीले रमते मृगः ॥ ५ ॥ टीका 'कणकुडग' इत्यादि । सुकरः खलु कणकुण्डकम् - तण्डुलपूर्णभाजनम् - इदमुपलक्षणम् - रुचिर मधुर सुस्वाद सुगन्धयुक्त समासादिपुष्टि र हितकर यत् तण्डुलादिक, तेन पूर्ण यद्भाजनमुपस्थित तदिति भावः त्यक्त्वा निष्टा भुडे, अत्र विष्टामित्यनेन अपनिया घृणोत्पादिका रुजाकरा हेया दुर्गन्धा कृमिमक्षिकादिपरिपूर्णामित्यर्थं नितः । एवम्=अमुना प्रकारेण मृगः = मृग इन मृगः अज्ञःहिताहितविवेकवर्जित इत्यर्थः, शील- मूलोत्तरगुणलक्षण साधाचार, यद्वा- विनयसमाधिलक्षण त्यक्त्वा दुःशीले दुराचारे अविनयलक्षणे रमते = आसज्यते । अय भात्रः—यथा स्रुकरः प्रशस्तमाहार विधाय नितान्तमशुचिं सादर मुझे जज्ञत्वात्, यदि दुःशील सकल अनर्थों की जड है तो फिर क्यो अविनीत उसमे अनुरक्त होता है' इस प्रकार की शका के समाधान निमित्त दुःशील मे रतिका कारण दृष्टान्त देकर सूत्रकार समझाते है-कणकुडग इत्यादि । अन्वयार्थ - जैसे- (सूयरो-शूकरः) सूकर (कणकुडग - कणकुडक) तन्दुल- आदि उत्तम भोजनीय पदार्थों से भरे हुए भाजन को ( चइत्ता ) परित्याग कर ( ण - खलु ) निश्चय से आनद के साथ ( विट्ठ - विष्टा ) विष्टा - अशुचिको (भुजट - मुक्ते) खाता है (एव) इसी तरह (मिए તે દશીલ સફલ અનર્થોનો જડ છે તે પછી અવીનાત એમા કેમ અનુરક્ત વાય છે આ પ્રકારની રાકનું સમાધાન કરવા નિમિત્ત ડીલમા तिनु दृष्टात यापी सूत्रार सभलवे - 'कणकुडग' त्याहि अन्वयार्य - नेम (सूयरो - शूकर ) सुर ( लू३) (कणकुडग - कणकुडक ) थोमा वगेरे उत्तम लोटनना पहार्थोथी लरेला लोन पात्रनो ( चइत्ता ) त्याग जरी (ण-सलु) निश्चययी मान साथै ( विट्ठ- विष्टा ) विष्टा अशुचिने (मुजइ
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy