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________________ ज्ञानचन्द्रिका टीका व्याख्याप्रज्ञ तिस्वरूपवर्णनम्. ५९१ भवति, एव ज्ञाता भवति, एव विज्ञाता भवति । एवम् = उपर्युक्तप्रकारेण चरणकरणप्ररूपणाऽत्र आख्यायते ६ | 'परीता वाचनाः' इत्यारभ्य 'चरण करणप्ररूपणा आख्यायते ' इत्यन्तानां पदानां व्याख्या आचाराङ्गस्वरूपनिरूपणावसरे कृता, ततो ऽवसेया । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - ' से तं विवाहे ' सैषा व्याख्या इति ॥ सू०४९ ॥ अथ षष्ठाङ्गज्ञाताधर्मकथास्वरूपमाह - मूलम्—से किं तं नायाधम्मकहाओ ? नायाधम्मकहासु णं नायाणं नगराई १, उज्जाणाई २, चेइयाई ३, वणसंडा ४, समोसरणाई ५, रायाणी ६, अम्मापियरो ७, धम्मायरिया ८, धम्मकहाओ ९, इहलोइयपरलोइया इढिविसेसा १०, भोगपरिच्चाया ११, पव्वज्जाओ १२, परिआया १३, सुयपरिग्गहा १४, तवोवहाणाई १५, संलेहणाओ १६, भत्त पञ्चक्खाणाई १७, पाओवगम तथा उपदर्शन हुआ है । जो व्यक्ति इस अंग का अच्छी तरह से अध्ययन करता है वह प्राणी आत्मस्वरूप हो जाता है, ज्ञाता हो जाता है, एवं विज्ञाता हो जाता है । इस तरह से इम अंगमें उपर्युक्त प्रकार से चरण और करण की प्ररूपणा आख्यात हुई है. प्रज्ञापित हुई है, प्ररूपित हुई है, दर्शित हुई है निदर्शित हुई है. उपदर्शित हुई है। इस प्रकार यह व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग का स्वरूप है।-" परीता वाचनाः” इन पदों से लेकर 44 चरण करण प्ररूपणा आख्यायते " यहां तक के ये जितने भी पद हैं उन सब की व्याख्या आचारांग के स्वरूप निरूपण करते समय सूत्र ४५ में की जा चुकी है अतः वहाँ से जान लेना चाहिये ।। सू० ४९ ॥ થયુ' છે. જે વ્યક્તિ આ અંગનું સારી રીતે અધ્યયન કરે છે તે વ્યક્તિ આત્મસ્વરૂપ થઇ જાય છે, જ્ઞાતા થાય છે અને વિજ્ઞાતા થાય છે. આ રીતે આ અંગમાં ઉપર પ્રમાણે ચરણુ અને કરણની પ્રરૂપણા થઈ છે, પ્રજ્ઞાપિત થઈ છે, પ્રરૂપિત થઈ છે, દર્શિત કરાઈ છે, નિદર્શિત થઈ છે, ઉપશિત થઇ છે. આ પ્રમાણે આ व्याच्या प्रज्ञप्ति गर्नु स्व३५ छे. “परितावाचनाः" मे यह थी सई ने " चरण करण प्ररूपणा आख्यायते " सुधीना भेटतां यह छे ते मधानी व्याच्या मायाરાંગનું સ્વરૂપ નિરૂપણ કરતી વખતે ૪૫માં સૂત્રમાં કરી નાખેલ છે, તે ત્યાંથી સમજીલેવી, ૫ સુ૦ ૪૯ ॥
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
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