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________________ शामचन्द्रिका टीका - अनक्षरथुतमेदाः ४५७ 1 श्रुतमित्यत्र श्रुतशब्दार्थाश्रयणात् । तथाहि श्रूयते यत् तच्छ्रुतमित्युच्यते । करादिचेष्टा तु न श्रूयते, ततो न तत्र द्रव्यश्रुतत्वप्रसङ्गः । उच्छ्वसितादिकं तु श्रूयते, अनक्षरात्मकं च। अतस्तदनक्षरश्रुतमित्युक्तम् । तदेतद्नक्षरश्रुतं वर्णितम् ॥स्र०३८॥ अथ सव्ज्ञिश्रुतं वर्णयति । मूलम् - से किं तं सपिणसुयं ? | सपिणसुयं तिविहं पण्णत्तं; तं जहा- कालिओवरसेणं, हेऊवएसेणं, दिट्टिवाओवएसेणं । से किं तं कालिओवरसेणं ? । कालिओवसेणं जस्स णं अस्थि ईहा, अवोहो, मग्गणा, गवेसणा, चिंता, वीमंसा से णं सण्णीति लब्भइ । जस्स णं नत्थि ईहा, अवोहो, मग्गणा, गवेसणा, चिंता, वीमंसा, सेणं असण्णीति लब्भइ । सेत्तं कालिओवरसेणं । से प्रयोक्ता के हार्दिक भावोंका पता लग जाता है, एवं प्रयोक्ता इसे जानबूझकर कहता है अतः उच्छ्वसित आदि की तरह यह भी भावश्रुत का कार्य एवं भावत का जनक है । उत्तर - इस प्रकार की शंका ठीक नहीं है, कारण - " श्रुत" यहां श्रुतशब्द के अर्थ का आश्रय लिया गया है, और इसका तात्पर्य यह है कि- " श्रूयते यत्तदिति श्रुतमित्युच्यते " अर्थात् जो सुना जावे वह श्रुत है । हस्तादि की चेष्टा सुनी नहीं जाती है वह तो देखी जाती है इसलिये वह द्रव्यश्रुतरूप नहीं मानी गई है। ये उच्छ्वसित आदि सुने जाते हैं और स्वयं अक्षर से रहित हैं इसलिये ये अनक्षरश्रुतरूप माने गये हैं । इस तरह अनक्षरश्रुत का वर्णन हुआ || सू० ३८ ॥ ભાવની ખખર પડી જાય છે. અને પ્રયેાકતા એને જાણી જોઈને કરે છે, તેથી ઉવસિત આદિની જેમ, એ પણ ભાવદ્યુતનુ` કા` અને ભાવદ્યુતનુ' જનક છે. उत्तर—मा अठारनी शं योग्य नथी, अरशु " श्रुत" सही श्रुत शहना अर्थनो आधार सेवाये। छे. अने तेनुं तात्पर्य मे छे ! " श्रूयते यत्तदितिश्रुतमित्युच्यते " मेटो ने संजाय छे ते श्रुत छे. इस्ताहिनी येष्टा સંભળાતી નથી, તે તેા જોવાય છે, તે કારણે તે દ્રવ્યશ્રુતરૂપ મનાઈ નથી. એ ઉચ્છવસિત આદિ સંભળાય છે અને સ્વય' અક્ષર રહિત છે તેથી, તેને અનક્ષરश्रुत३य भान्या छे. या रीते या अनक्षरश्रुतनुं वन थ्यु छे. ॥ सू. ३८ ॥ न० ५८
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
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