SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ नन्दीस्ने ननु प्रथमसमय एव रूपादिपरिहारेण 'शब्दोऽयम् ' इति ज्ञानमविग्रहत्वेन मन्यताम् , शब्दमात्रत्वेन सामान्यत्वात् , तदुत्तरकालं तु प्रायो माधुर्यादयः शङ्कशब्दधर्मा अत्र घटन्ते, न तु शाङ्गधर्माः खरकर्कशत्वादय इति विमर्शबुद्धिरीहा भविष्यति । ततश्च 'शाह एवायं शब्दः' इति शब्दविशेषावगमोऽवायोऽस्तु ? इति चेत् , शृणु यदि शन्दबुद्धिमानं 'शब्दोऽयम् ' इति निश्चयज्ञानमपि भवताऽर्थावग्रहो मन्यते, शब्दविशेषज्ञानमवाय इति भेदोऽङ्गीक्रियते, तर्हि अवग्रहाभावप्रसङ्गः स्यात्, अवग्रहस्थानेऽवायस्यैवाङ्गीकारात्। ___शंका-रूपरसादिक के परिहार से प्रथम समय में ही 'यह शब्द है, अशब्द-रूपादिक नहीं है, ' ऐसा ज्ञान अर्थावग्रहरूप से मान लेना चाहिये, क्यों कि अर्थावग्रह का विषय आप सामान्य कहते हैं और "यह शब्द है" ऐसा ज्ञान मात्र की अपेक्षा सामान्य पड़ जाता है। अब इसमें ईहा भी उत्तर काल में उत्पन्न हो जावेगी-जब ऐसा विमर्श होगा कि शाङ्ग शब्द के धर्म खर कर्कशता आदि इसमें घटित नहीं होते हैं, किन्तु प्रायः माधुर्य आदि शंख शब्द के धर्म यहां घटित हो रहे हैं । इसके बाद ऐसा शब्द विशेष का निर्णय होने पर कि "यह शंख का ही शब्द है" अवायज्ञान मान लिया जायगा। उत्तर-ऐसा मन्तव्य भी ठीक नहीं माना जा सकता है क्यों कि "शब्दोऽयम्" यह शब्द है । ऐसी शब्दबुद्धि भी यदि अर्थावग्रहरूप से मानी जावेगी, और शब्द विशेष का निर्णय अवायरूप से माना जावेगा तो फिर अवग्रह ज्ञान क्या होगा-ऐसी कल्पना में तो अवग्रह का अभाव શંકા–રૂપરસાદિકનાપરિહારથી પ્રથમસમયમાં આ શબ્દ છે, અશબ્દરૂપાદિક નથી,” એવું જ્ઞાન અર્થવગ્રહ રૂપે માની લેવું જોઈએ. કારણ કે અર્થાવગ્રહને વિષય અન્ય સામાન્ય કહે છે અને આ શબ્દ છે” એવું જ્ઞાન શબ્દમાત્રની અપેક્ષાએ સામાન્ય જ લાગે છે. હવે તેમાં ઈહા પણ ઉત્તરકાલમાં ઉત્પન્ન થઈ જશે, જ્યારે એ અનુભવ થશે કે કંગ શબ્દના ધર્મ તીખા અને કઠોર આદિ તેમાં ઘટાવી શકાતા નથી, પણ સામાન્ય રીતે માધુર્ય આદિ શંખ શબ્દનામેં તેમાં ઘટાવી શકાય છે. ત્યાર બાદ શબ્દ વિશેષનો “આ શંખને જ અવાજ છે” એ નિર્ણય થતા તેને અવાયજ્ઞાન માની લેવાશે. उत्तर--मेवी मान्यता पण साथीभानाशयतेभनथी २५ है “श दो ऽयम्" मा २५४ छ. मेवी शम्भुद्धि ५५ न्ने अर्थावडपे मनाय, मने શબ્દવિશેષને નિર્ણય અવાયરૂપેમનાય તે પછી અવગ્રહજ્ઞાન શું હશે?
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy