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________________ सुदशिनी टीका १० . सू०११ अध्ययनोपसहार ६४५ तत्याद , ' अमफिरिटो' असहिष्ट -अममाधिभावनितत्वात् ' सुद्धो' शुद्धा चर्ममलयर्जितत्वात् ' सबनिणमणुण्णानो' सर्वजिनानुज्ञात -सकल्प्रागिहितकारकत्वात् सर्वेपामर्हतामनुमतश्चास्ति । एवम्-उक्तमकारेण 'पढम सवरद्वार' अयम सपरद्वार, , फासिय' स्पृष्ट कायेन, ' पालिय पालित सततमुपयोगेन सेनितम् , ' सोहिय ' गोधितम्-अविचारमननेन, 'तीरिय ' तीरित-तोर प्रापित पूर्णरूपेण सेवितम् , 'किट्टिय' कीर्तितम् अन्येषामुपदिष्टम् , तथा 'आराहिय' आराधित-विमरणनियोगः सम्यगाचरितम् , ' आणाए ' आज्ञयासनवचनेन, 'अणुपालिय' अनुपालित च भवति । एवम् उक्तरूप सबरद्वार केन कथितम् ? अन्छिद्ररूप है। (अपरिस्साई ) एक चिन्दु मात्र भी कर्मस्प जल का इस में प्रवेश नहीं हो सकता है अत. उससे रहित होने के कारण यह अपरिम्नावी है। (असफिलिहो) असमाधिरूप भाव से यह वर्जित होता है इसलिये असक्लिष्ट है। तया (सुद्धो) कर्ममल से सर्वथा विहीन होने के कारण यह शुद्ध है। इसीलिये यह (मव्यजिणमणुण्णाओ) समस्त अहंत भगतों को अनुमत-मान्य हुआ है क्यों कि इसीसे सकल प्राणियों का हित हुआ है। (एज पढम सबरदार) उक्त प्रकार से प्रथम सवरद्वार को (फासिय) जो अपने काय से स्पर्श करते हैं (पालिय) निरन्तर ध्यान पूर्वक इसका सेवन करते हैं (सोरिय) अतिचारों से इसे रहित बनाते है (तीरिय) पूर्णरूप से इसे अपने जीवन में उतारते है (किष्टिय ) दूसरो को इसे धारण करने का उपदेश देते हे तथा (आराहिय) तीन करण तीन लोगों से जो इसे अच्छी तरह आचरित करते ह (आगाएअणुपालिय भवह ) सर्वज के वचन એક બિન્દુ જેટલા પણ કર્ણરૂપી જળને તેમાં પ્રવેશ વડ નાતો નથી, તેથી तनाथी -डित डावाने ४२० ते मनापी , “असकिलिलो" समाधि३५ लावी ते २डित डाय छे तेथी ते मस GिAL त " मुद्धो" भ. भगथी अवथा २डित डावाने जाणे ते शुद्ध छे तेथी ते “सचजणमणपणाओ" समस्त मत लवानाने मान्य थये। छ, stoey , तेनाथी सपा प्रशासानु हित यु छे “ एत्र पढम सपरदार" Exa प्रारे प्रथम भवानी "फोसिय" २ पोताना शरीरथी - रे ' पालिय , निरन्तर ध्यानपूर्व तेनु पासन उरे के "सोहिय" मतियारोथी तने २डित मनाचे छ “ तीरिय" पूएते तेने पाताना सनम नारे , 'किष्टिय" vीन ते पाणवान। पहेश मापे छ, तथा ' आराहिय " ए र त्रय योगाथी २तेने सारी रीत मायरे छ " आणाए अणुपालिय भवइ "समा
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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