SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना " समणेण सावएण य, अवस्सकायन्त्र हवइ जम्हा | यतो अहोनिसस्स य, तम्हा ' आवस्सय' नाम ॥ १ ॥” इति । यच्च सूत्रमिदमावश्यकमित्यारयायते, तत्प्रतिपाद्य-प्रतिपादकाऽभेदाऽभिमायादित्यवगन्तव्यम् । आवश्यक हि नैवोपयोगमन्तरा केवल शुरुवद-आरट्यमान सम्यक्तया फलमद, किन्तु सोपयोग स्वात्मनि तद्गतविषयपरिणमनपूर्वक विधीयसल्लोकोचरफलप्रदमत एवेद - लोकोत्तरभावावश्यकमिति कथ्यते । मान यथोक्त भगवता - " जण्ण इमे समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तच्चिते तम्मणे तलेस्से तदज्झसिए तत्तिन्वज्झवसाणे तदट्टो उत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए समणेण सावएण य, अवस्सकायव्व हवइ जम्हा । अतो अहोनिसस्स य, तम्हा 'आवस्य' नाम ॥ इन क्रियाओं को 'आवश्यक' कहने का कारण बतलाया जा 'चुका है। किन्तु इस सूत्र को भी आवश्यक कहते है। वह इसलिये कि यहाँ प्रतिपाद्य - जिसका प्रतिपादन किया जाय (आवश्यक), और प्रतिपादक (शास्त्र) के अभेद की विवक्षा है | विना उपयोग लगाये तोतारटन्ती कर लेने से आवश्यक का वास्तविक फल नहीं होता, किन्तु उपयोग के साथ, उनके विषय को आत्मा के साथ एकमेक करते हुए जो आवश्यक किया जाता है वही लोकोत्तर फल देने वाला लोकोत्तर भावावश्यक कहलाता है । भगवान् ने कहा है- "जण्ण इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविया वा જો કોઈ પણ ક્રિયા ઉપયેગપૂર્વક આચરવામા આવે તે જ તેનું વાસ્ત વિક ફળ પ્રાપ્ત થઈ ટાકે છે ખાડી પઢો પોપટભાઈ રાજારામ' તે સૂત્ર અનુસાર પેટીઆ જ્ઞાનની માફક મુખથી ખેલી જવુ, તેથી કાઈ અર્થ સરતા નથી જે ઉપયેગ અને ભાવપૂર્વકજ આવશ્યક ક્રિયાઓનુ આચરણ થાય તેજ તેથી ઉપ લક્ષિત આનંદ પ્રાપ્ત થાય છે ભગવાને કહ્યુ છે કે 'ले दोध साधु साध्वी, श्राव श्रावि तम्यिते तन्भये, तन्खेसे, तदृध्य
SR No.009344
Book TitleAavashyak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages575
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy