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________________ २२२ आवश्यकमूत्रस्य तिर्यकृते घोर उपसर्गे सोढेऽधि-मनापर्यय-केवलज्ञानामन्यतमस्यैकस्य कस्य चिज्ज्ञानस्योदयो जायते, अन्यथा तून्मादादिदुष्टरोगसक्रमेण श्रमणस्य केवलिमरूपितवर्माद्भवति परिभ्रशनम् ।। मृ० ११ ।। ॥ मूलम् ॥ तेरसहि किरियाठाणेहि ॥ सू०१२॥ ॥ छाया ॥ योदशभिः क्रियास्थान ॥ मृ० १२ ।। ॥ टीका ॥ त्रयोदशभिः क्रियास्थानों मयाऽविचारः कृतः इत्यादिसम्वन्धो यथोक्तः । तत्र क्रियास्थानान्युक्तानि, यथा-"(१) अट्टादडे, (२) अणहादडे, (३) हिंसादडे, (४) अझम्हादडे, (५) दिहिविपरियासियादडे, (६) मोसबत्तिए, (७) अदिन्नादाणत्तिए, (८) अज्झत्थवत्तिए, (९) माणवत्तिए, (१०) मित्तदोस वत्तिए, (११) मायावत्तिए, (१२) लोभवत्तिए, (१३) इरियावहिए" इति । तत्राऽर्थाय स्वपयोजनाय दण्डोऽर्थदण्डः (१) अनर्थ प्रयोजनमन्तरेण दण्डो तिर्यच सम्बन्धी घोर उपसर्ग यदि सहन करले तो अवधि, मनापर्यय, और केवलज्ञान मे से किसी एक की उत्पत्ति होती है, नहीं तो उन्मत्त (पागल), दीर्घकालिक दाहज्वरादि रोगों से पीडित और केवलिप्रसपित धर्म से च्युत हो जाता है। इन बारह भिक्षुप्रतिमाओं में न्यूनाधिक श्रद्धा-प्ररूपणा आदि द्वारा जो अतिचार किया हो तो उस से मैं निवृत्त होता है ॥सू० ११॥ क्रियास्थान तेरह है-(१) अर्थदण्ड (स्वप्रयोजन के लिये કરી લે તે અવધિ, મન પર્યય અને કેવળ જ્ઞાનમાથી કઈ એકની ઉત્પત્તિ થાય છે, નહિ તે ઉન્મત્ત (પાગલ), દીર્ઘકાલિક દાહવરાદિક રોગોથી પીડિત અને કેલિપ્રરૂપિત ધર્મથી પતિત થાય છે આ બાર ભિક્ષપ્રતિમાઓમાં ઓછી વધતી શ્રદ્ધા પ્રરૂપણા વિગેરે દ્વારા જે કઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત था छु (१० ११) यास्यान तेर-(१) अर्थ (पाताना प्रयोल भाट हिया ४२वी) (२) मन (PY विना लिया ४२वी), (3) डिसा, (४) मभात १ उपसर्गभीरुत्वे
SR No.009344
Book TitleAavashyak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages575
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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