SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૮૮ , आवश्यकमूत्रस्य - - एव । 'पडिफमामि' मतिकामामि, 'चहि' चतुभिः, 'माणेडिं' ध्याति:ध्यान निर्यातस्थानस्थितनिधरमदीपशिखावत् स्थिरतर-धारावाहिकानविच्छेदक विषयान्तरसञ्चारानन्तरितकमात्रार्थचिन्तनरूपचित्तेकाग्रतास्वरूप, यदुक्तम् 'अतोमुहुत्तमित्त, पित्तावत्याणमेगवत्युम्मि । छउमस्थाण झाण, जोगणिरोहो जिणाण ति' इति । तैः, तद्वारा यो मयाऽतिचारः कृतः, इत्याघन्वयः प्राग्वत् । क्रमेण भेदचतुष्टयमेवाह-'अट्टेण झाणेण' आर्तेन ध्यानेन, अति: मनोव्यथा, तस्या तया सह वा भवमिति, अथवा 'ऋतिः अशुभ तया सह भवमा तेन ध्यानेन मनोज्ञामनोज्ञवस्तुसयोगपियोगजनिचित्तोद्रकलक्षणेनेत्यर्थः, तदुक्तमितरत्रापि-- पवन रहित स्थानमें रखे हुए निश्चल दीपकी शिखाके समान अत्यत स्थिर-धारावाही ज्ञानका विच्छेद करनेवाले अन्य पदार्थों के सबन्ध से रहित एक मात्र वस्तु के न्तन को ध्यान कहते है, जैसा कि कहा है-'छद्मस्थों के एक वस्तु में अन्तर्मुहूर्त मात्र मनका अवस्थान 'ध्यान' कहलाता है। किन्तु जिन भगवान के मन का अभाव होने के कारण योगनिरोध ही होता है, अवस्थान नहीं। वह ध्यान आर्त (१) रौद्र (२) धर्म्य (३) और शुक्ल (४) भेद से चार प्रकार का है, उनमें से (१) आध्यान उस कहते हैं जो अत्ति-मन की व्यथा के साथ, अथवा ऋति-अशुभ के साथ होने वाला हो, अर्थात् इष्ट शब्दादि के सयोग और अनिष्ट के वियोग का चिन्तन करना । जैसा कि लिखा है जिसमें નિવૃત (જ્યા પવન આવી શકે નહિ તેવા) સ્થળે રાખેલા નિશ્ચલ દીપક–દીવાની શિખા સમાન અત્યત સ્થિર ધારાવાહી જ્ઞાનને વિરછેદ કરવાવાળા અન્ય પદાર્થોને સ બ ધથી રહિત એક માત્ર વરતુના ચિન્તનને “ધ્યાન” કહે છે કહ્યું છે કે “છસ્થને એક વસ્તુમાં અન્તર્મહત્ત માત્ર મનનું અવસ્થાન २७ छ तेन ध्यान ४ छे ते ध्यान (१) भात, (२) शैद्र,(8) धन्य, (४) शुsa ભેદ થી ચાર પ્રકારનું છે તેમા (૧) આ ધ્યાન તેને કહે છે કે –જે અતિ–મનની પીડાની સાથે અથવા ઋતિ-અશુભની સાથે થનારૂ હોય, અર્થાત ઈષ્ટ શબ્દાદિને १-ऋतिः-अशुममिति शब्दकल्पद्रुमः । -
SR No.009344
Book TitleAavashyak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages575
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy