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________________ २४ - - - राजप्रश्नायसूत्रे शिष्य. अन्तेवासाव-अन्तेवासी-सम्यगाज्ञापालक इति भावः, तथा भूतो निन शत्रु न म राजा आसीत। म जितशत्रू राजा महाहिमवद्-याचदं पिहरति । 'जितशत्रो राज्ञः सर्व वर्णनमोपपातिकमूत्रोक्त कूणिकराजबद् बोध्यमिति ।।मू० १०३।। ___मूलम्--तएणं से पएसी राया अन्नया कयाई महत्थं महग्ध महरिह विउल रायारिह पाहुड सजावेइ सज्जावित्ता चित्तं सारहि सदाबेइ, सदाबित्ता एवं बयासी-गच्छ चित्ता ! तुमं सावन्थि नगरि जियसत्तस्स रण्णो इमं महत्थं जाव पाहुड उवणेहि जाई तत्थ रायकजाणि य रायकिञ्चाणि य रायनिईओ य रायववहारा य ताई जिपसत रादि सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विहराहित्ति कडु विस ज्जए । सू० १०४ ॥ छाया-तनः खलु प प्रदेशी राजा अन्यदा कदाचित महाथ महाध महाई विपुल राजाह प्राभूत मजयति, सजयित्वा चियं सारथिं शनशब्दक अर्थ शिप्य है. वह अन्तेवासी के समान अन्तेवासी था अर्थात् उसकी आज्ञा का अच्छी तरह से पालक था. जितशत्रु राजा का सर्ववर्णन औषपातिक मत्रोक्त कूणिक रानाकी तरह से है ऐसा जानना चाहिये ॥०१०३।। 'तएण से पएसी राया' इत्यादि । मर्थ-(तएण से पएसी राया अन्नया कयाई महत्ां महग्ध महरिह विउलं गयारिहं पाहुड सजावेइ) एक दिन की बात है कि प्रदेशी राजा ने महार्थ-विपुल प्रयोजनवाला-मातिशयप्रयोजनयुक्त, महाध-बहुमूल्य, महाह-अतिशोभायुक्त, विपुल-बहुत बडा ऐसा.गजा के योग्य मामृत-भेट અન્તવાસી શબ્દનો અર્થ શિષ્ય છે. તે અન્તવાસીની જેમ અતેવાસી હતો એટલે કે તે સરસ રીતે તેની આજ્ઞાનું પાલન કરતો હતે. જિતશરાજાનું બધું વર્ણન ઔપપાતિક સૂકત ફૅણિક રાજાની જેમજ સમજવું જોઈએ. એ સૂત્ર ૧૦૩ 'त एण से पएमी रायो' इत्यादि। · सत्रार्थ-(त, एण से पएसी राया अन्नया कयाई महत्थं महग्ध महरिह विउल रायारि पाहड सज्जावेइ) ते प्रदेशी साये मे हिवसे भार्थ વિપુલ પ્રજનવાળી–સાતિશય પ્રયજન યુકત, મહાઈ–બહુમૂલ્યવાળી, મહીં અતિશેભાયુક્ત, વિપુલ–પુષ્કળ પ્રમાણમાં રાજાઓના માટે યોગ્ય એવી ભેટ (પ્રાભૃત) તયાર કરી.
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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