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________________ सुबोधिनी टीका सु. १५८ सूर्याभिदेवस्य पूर्व भवजी प्रदेशिराजवर्ण नम् ३५३ टीका - "तए णं केशिकुमारसमणे" इत्यादि - ततः खलु केशिकुमारश्रमणः प्रदेशिनो राज्ञः सूर्यकान्ता प्रमुखानां देवीनां तस्यां तत्र स्थितायां च ...महातिमहा अतिबृहत्याम्, परिषदि चातुर्यामम् अहिंसा सत्या स्त्येयाऽपरिग्रहैर्विभक्त चतुर्महाव्रतरूपं धर्मं परिकथयति - परूपयति । उपलक्षणाद् द्वादशविधं गृहिधर्म परिकथयति ततः खलु स प्रदेशी राजा धर्मम्-नगराध सामान्यतः श्रवणगोचरं कृत्वा निशम्य विशेषतो हृद्यवधायें उत्थया - उत्थानप्रयासेन उत्तिष्ठति उत्थान केशिकुमारश्रमण वन्दते - स्तौति, नमस्यति नमः स्करोति, वन्दित्वा नमस्त्विा च यत्रैव श्वेतांधिका नगरी तत्रैव गमनाय धारयत्- निश्चितवान् । ।। १५८ ।। मूलम् - तणं केसी कुमारसमणे परसिराय एवं क्यासी-सा र्ण तुमं पएसी ! पुब्वि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भवि णहसालाइ वा इक्वाडएड़ वा वणसंडे पुवि रमणिज्जे भवि - पएसी ! जहा णं वणसंडे पत्तिए जासि, जहा से वणसंडेइ वा खलवाडएइ वा । कं णं भंते! त्ता पच्छा अरमणिजे भवइ ? - निसम्म उठाए उछेड़ - " इसके बाद प्रदेशी राआ धर्म सुन कर और उसे हृदय में धारणकर अपने आप वहां से उठा - "केसीकुमारसमणं वंदइ नमसह -" उठा. र उसने केशीकुमार श्रमण की बन्दनों की उन्हें नमस्कार किया. “जेणेव सेयंविया नयरी तेणेव पहारेत्थं गमगाए - वन्दना नमस्कार कर फिर वह अपनी नगरी की ओर चलदिया। टीकार्थ- स्पष्ट है - केशीकुमारश्रमणने चातुर्याम धर्म के उपदेश और- साथ-साथ १२ प्रकाररूप गृहस्थ धर्म का भी उपदेश दिया. ऐसा कथन उपलक्षण से जान लेना चाहिये ।। सृ. १५८ ।। लादया । टीक उट्ठाए उट्ठेइ" त्यार पछी अदेशी राम धर्म सांभजीने गने तेने हृध्यमां धाराशु श्रीने पोतानी भेणे ? त्यांथी लो थयेा: " केसी कुमारसभण व दइ नमस उला थने तेथे वैशी कुमारश्रभाणुनी वहना पूरी तेमने नमस्कार ४. जेणेव सेयचिया नगरी तेत्रैव पहात्रेथ गमणाए" वढना तेमन नमस्र ने छी ते पोतानी नगरी त२३ रवाना थह गया. साथै ટીકા-સ્પષ્ટ છેકેશીકુમારશ્રમણે ચાતુર્યામ ધર્મના ઉપદેશ અને તેની સાથે ૧૨ પ્રકારરૂપ ગૃહિધના પણ ઉપદેશ આધા હતા, એવું કથન ઉપલક્ષણથી लगी सेषु लेो. ॥ सू. १५८ ॥
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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