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________________ धिनी टीका सू. १३३ सूर्गभदेवस्य पूर्व नवज वप्रदेशिराजवणं' नम् २०३ , एवं ग्वल भदंत ! मम आर्यिकाऽभव, इहैव श्वेतविकाय नगर्या धार्मिकी यावद् वृत्तिं कल्पयमाना श्रमणोपासका अभिगतजीवा० सर्वो वर्णकः यावद् आत्मानं भावयन्ती विहरति सा खलु तत्र वक्तव्यतया सुबहु पुण्योपचयं समय कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतयोपपन्ना, तस्याः खलु आर्यिकायाः अहं नप्तृकोऽभवम्, इष्टः कान्तः यावद् दर्शनंतया, तद् यदि खलु माssयिका मम आगत्य एवं वदेत् एवं खलु नप्तृक ! अहं - मम अज्जिया होत्था इहेत्र सेयविधाए नयरीए धम्मिया जात्र वित्ति कप्पेमाणी समणोवासिया अभिगय जीवा० सव्वओ वण्णओ जाव अप्पा भावेमाणी विरइ) हे भदन्त ! मेरी जो आर्यिका - ( दादी) हुई है, वह तो इस श्वेतांका नगरी में धार्मिकधी यावत् धर्म से ही अपनी जीवनयात्रा चलाती थी, श्रमणोपासिका श्री, जीवअजीव तत्र के स्वरूप को जानती थी, इत्यादि सर्व वर्णन यहां पर करना चाहिये. यावत् वह आत्मा को भक्ति करती हुई अपने समय को व्यतीत करती थी ( साणं तुज्झ वसन्याए सुबहु पुण्णोवचयं समनिणित्ता कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएस देवताए उन्ना) वह आपके कथनानुसार बहुत अधिक पुण्य का उपचय करके कालमास में काल कर देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं। (नीसे णं अज्जियाए अहं नए होत्था ) में उसका पौत्र हुआ हू (इट्ट े ते जाव पासणयाए) मैं उसके लिये इष्ट अभिलषित. कान्त या यावत् दर्शन के लिये भी दुर्लभ था. मम अज्जिया होत्था इहेव सेयंवियाए नयरीए धम्मिया जाव वित्ति कप्पेमाणी समणीवासिया अभिगयजीवा० सओ वण्णओ जाव अप्पाण भावेाणी विरह) हे लहंत ! भारा ? मार्थि । (हाही ) थया छे ते तो मा શ્વેતાંખિકા નગરીમાં ધાર્મિક હતા યાવતુ ધર્મનું આચરણ કરીને પેાતાનું જીવન પસાર કર્યું હતુ. તેઓ શ્રમણેાપાસિકા હતા, જીવ અજીવતત્ત્વના સ્વરૂપને જાણુતા હતા. વગેરે બધુ વન અહી' સમજી લેવુ જોઇએ. તેએ પેાતાના આત્માને ભાવિત ईश्ता पोताना सभय पसार रता हुता. (साणं तुज्झ वन्त व्वयाए सुबहु पुष्णोवचय' समज्जिणित्ता काल किच्चा अण्णयरेसु देवलोपसु देवत्ताए उवचन्ना) તે આપના ક્થન મુજબ ખૂબજ પુણ્ય સંચય કરીને કાલ માસમાં કાલ કરીને देवोऽभांथी । ये देवसोम्भां हेवनी पर्यायभां नन्भ याभ्या छे. (ती से ण* अज्जियाए अहं न ए होत्था) तेभनो हु' चौत्र थयो छु . ( इट्ठे कते जाब j पासणयाए) हुँ तेभना भाटे छष्ट, अभिलषित, झांत तो यावत् दर्शन भाटे पशु
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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