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________________ १८६ राजप्रश्रीयसूत्रे , अहं च पाप कर्म कालकलुरं समये नरकंषु उपपन्नः, तद् मा खलु नप्तृक ! त्वमपि भव अधार्मिकः यावद् नो सम्यक् करभम्वृतिं प्रवर्तय, मा खलु त्वमपि एत्रमेत्र सुबहु पापकर्म यावद् उपपत्स्यसे तद् यदि ग्लु स आर्यकः मम आगत्य वदेत - ततः खलु अहं श्रध्याम् मतीयाम् रोचयेयं, यथा-अन्े जीवः अन्यत् शरीरम् नो तत् जीवः स शरीरम् यस्मात् खलु स (तए णं अहं सुबहु पावं कम्मं कलिकलुस समजिणित्ता नरएस उनवणे) अतः मैंने बहुत अधिक अतिकल्लुप पापों का संचय किया था और इससे मैं नग्को में से किसी एक नरक में नारक की पर्याय से उत्पन्न हुआ हूं (न माणं नत्तुया ! तुमपि भवाहि अधम्मिए जाव णो सम्मं करभरवित्ति पहि) इसलिये हे पौत्र ! तुम अधार्मिक मत होना, और प्रजाजनों से प्राप्त टेक्स से उनके पोषण में असावधान मत रहना प्रत्युन उमसे उनका पोपण अच्छी तरह से करना ( मागं तुमं पि एवं चेत्र सुब पोत्रकम्मं जाव उववज्जिहिमि ) नहीं तो तुम भी इसी तरह से बहुत अधिक पाप कर्म का यावत् उपार्जन करोगे, इसलिये ऐसे पापकर्मों का उपार्जन मेरे द्वारा न हो इस तरह से ( तं जड़ ण' से अज्जए ममं आगंतुं चएज्जा) यदि वे आर्यक आकरके मुझे समझा (तो णं अहं सहेजा पत्तिएजा एजा जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीर णो त जोवो व सरीर) तो मैं आपके इस कथन पर विश्वास करूं और उसे अपनी प्रतीति का विषय बनाऊ', तथा अपनी रुचि के भितर उसे उतारु (जहा भन्नो जीवो, अन्नं सुबहु पावं कम्मं कलिकलुस ममज्जिणित्ता नरएसु उचत्रणे) मेथी भें ઘણા અતિકલશ પાપાના સંચય કર્યાં છે અને એથી જ નરોમાંથી કાઈ એક નકમાં नार४ना पर्यायभां उत्पन्न थयो छ ( त मा णं ननुया ! तुमपि भवाहि अभिए जाव णो सम्मं करभरवित्ति पत्ते हिं) भाटे हे चोत्र ! तमे धार्मिङ थशेो નહિ અને પ્રજાજના પાસેથી કર વસુલ કરીને તેમના પાષણના કામમાં સાવધાન रहेश। नहि थषु तेभनुं सरस रीते पोषण ४३श. (माण तुमं पि एव ं चेव सुबहु पावकम्म जाव उववज्जिहिसि ) नहितर तमे धातु भारी प्रेम ४ ઘણા વધારે પાપકનું ચાવત્ ઉપાર્જન કરશે. આ પ્રમાણે આ જાતનાં પાપકર્માનું ઉપાર્જન भारा वडे थाय नहि तेभ (त' जइ णं' से अज्जए मम आगतुं वएज्जा ) तेथी ते आर्य आवीने भने सभलवे. (तो णं अह सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा, रोएज्जा, जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीर णो त जीवो त सरीरं) तोहु आपना अ કથન પર વિશ્વાસ કરી શકુ અને તેને મારી પ્રતીતિને તેમજ રુચિના વિષય બનાવી
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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