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________________ सुबोधिनी टोका. १२५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिरजवर्णनम् स्तत्र कोपागच्छति. चातुर्घण्टमश्वरथं दूरोहति, श्वेतविकाया नगर्या मध्य. मध्येन निर्गच्छति । ततः खलुः स चित्रः सारथिम्त रथं नैकानि योजनानि उद्भ्रामयति । ततः खलु स प्रदेशी राजा उष्णेन च तृणया च रथ वातन च परिलान्तःसन् चित्र सारथिमेवमबादीत्-चित्र ! परिकान्त में शरीरं, परासारथि को अश्वरथ के तैयार हो जाने की बात को नकर और उसे हृदय में धारण कर बडा ही अधिक हपित एवं तुष्ट चित्त हुआ. उसने उसी समय अपने शरीर पर बहुमूल्य अल्पभार वाले आभूपणों को धारण किया शीघ्र ही वह फिर अपने घर से बाहर निकला (जेणामेव चारघंटे आप रहे तेणेव उवागच्छद) बाहर निकल कर वह वहां पर आया कि जहां पर वह चार घंटों वाला अश्वरथ तैयार किया गया खडा था (चाउरवट आसरह दुरूहइ, सेय वियाए सज्ज मज्झेण गिरगच्छ इ) वहां आकर वह चार घंटों वाले उस स्थ पर बैठ गया. फिर वह श्वेतां बझा नगरी के ठोक मध्यमार्ग से होकर निकला (तए ण से चिशे सारही त रह णेगा जोयणाई उम्भामेइ) बाद में उस चित्र सारथिने उस रथको अनेक योजना तक बहुत तेज चाल से चलाया. (तर ण से पएसी राया उण्हेण च नहाए य रहवाएण य परिकिलते समाणे चित्त सारहि एवं वयासो) इप कारण वह प्रदेशी राजा आतप से, प्यास से और रथगत्युव वायु से खिन्न हो गया, अतः उसने चित्र सारथि से ऐसा कहा-(चत्ता ! परिकि વાત સાંભળીને અને તેને હદયમાં ધારણ કરીને ખુબજ હર્ષિત અને તુષ્ટ ચિત્તવાળો થયો તેણે તેજ ક્ષણે પિતાના શરીર પર બહુમૂલ્ય તેમજ અ૫ભારવાળાં આભૂષણો ધારણ ४ा भने real ते पोताना भड़तथा गडा२ नीज्यो. (जेणामेव चाउग्घटे आस. रहे तेणेव उवागच्छड) २ नीजान ते त्या माव्याच्या न्या२ घटवाणा अवश्य सुसन याने सोडतो. (चाउघंटे आलरह दुरूहह, सेयवियाए नयरीए मज्झ मज्झण णिग्गच्छड) त्या पडाचीन ते या२ घटीवाणा ते मश्वस्थ પર બેસી ગયા અને ત્યારપછી તે તાંબિકા નગરીના ઠીક મધ્યવાળા રાજમાર્ગ પર मन नाण्या. (त ए से चित्त सारही तरह गाई जोयणा उभामेड) ત્યારપછી તે ચિત્રસારથિએ તે રથને ઘણુ જન સુધી બહુજ તીવ્રવેગથી ચલાવ્યું. तए ण से पएसी राया उण्हेण य ताहाए य रहवाएणय परिकिलते समोणे . . चित्त' सारहिं एवं वयासी) तथा ते प्रदेशी २ion तापथी, त२सथी मने २थनी તીવગતિને લીધે સામેથી અથડાતા પવનથી ખિન્ન થઈ ગયું. એથી તેણે ચિત્ર साराथन या प्रमाणे . (चित्ता ! परिकिलते मे सरीरे परावत्तेहिं, रह)
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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