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________________ राजप्रश्नीयसत्रे णाम् । तद् यदि खलु देवानुप्रिय ! प्रदेशिनो बहुगुणतरं भवेत्, स्वकस्यापि च खल जनपदस्य ॥ मू० १२२ ॥ टीका-'तए णं से चित्ते' इत्यादि-ततः तदनन्तरं ग्वल म चित्र: सारथिः केशिनः कुमारश्नमणस्य अन्तिके समीपे धर्म जिनोक्तं श्रुत्वाकर्ण गोचरीकृत्य निशम्य हावार्य हृष्टतुष्ट तथैव-पूर्व वदेव हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः भीतिसनाः परमलामनस्यितः हर्षवश विसर्पहृदयः, इति संग्रात्यम् । अर्थस्तु पूर्व गतः। एबमवादीत-किमवादीत् ? इत्याह-एवं खलु यत् हे मदन अस्माकं प्रदेशी राजा अधार्मिक यावत्-यावत्पदेन-अधर्मिष्ठादीनि सर्वाणिविशेषणालि एकशततमसूत्रोक्तानि संग्राह्याणि, एषामर्थोऽपि तत्रैव विलोयदि आप हे देवानुप्रिय ! उस प्रदेशी राजा को जिनप्ररूपित धर्म का उपदेश देखें तो वह उस प्रदेशी राजा के लिये और परलोक में वहुत गुणकारी होगा, तश अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी एन सरीसृपसर्प आदिकों का हितावह होगा (तेसिं च बहुण समणमाहणभिक्खु. याण) और उन अनेक श्रमण माहणे, भिक्षुकों के लिये वहत ही अधिक लाभदायक होगा (तं जइ ण देवाणुपिया ! पएसिस्स बहुगुणतर होजा, सयस्स विय ण जणवयस्स) यदि वह धर्मो देश प्रदेशी राजा का हितकारक हो जाता है तो उसके जनपद-देश का.इससे वडा भला होगा। टीकार्थ. इसको स्पष्ट है। हद्वतः तहेव एवं वयासी' में तथैव' पद से 'हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः, प्रीतिमनाः, परमसौमनस्थितः, हर्ष वशविसरदयः' इस पाठ का ग्रहण हुआ है, इन पदो का अर्थ पहिले लिखा जा चुका है। "अहम्मिए जाव' में आगत पद से' 'अधर्मिष्ठ' आदिक विशेषणों का गृहण જે આપ દેવાનુપ્રિય તે પ્રદેશ રાજાને જિન પ્રરૂપિત ધર્મને ઉપદેશ આપે છે તે પ્રદેશી રાજાને આ લોક અને પરલોક અતીવ ગુણકારી થાય અને ઘણાં દ્વિપદ, ચતુ પદ, મૃગ, પશુ, પક્ષી અને સરીસૃપ એટલે કે સાપ વગેરેના માટે પણ હિતાવહ થાય. (तेसिं च बहूण समणमाहणभिक्खुयाण मने ते घ! श्रम भाडा भिक्षुहीना भाटे पाणु माती हितापड अर्थ थाय. (तं जइ ण देवाणुप्पिया ! पएसिस्स बहुगुणतर होज्जा, सयस्स वि य ण जणवयस्स) ने आपने धपिटेश अशी शत पाताना જીવનમાં ઉતારે તે તેનું પિતાનું અને તેના જનપદ–દેશનું પણ તેનાથી ઘણું કલ્યાણ થાય તેમ છે. या सूत्रार्थ स्पष्ट ०१. छ. "ह 8 तहेव वयासी 'मां' तथैव" ५४थी "हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्यितः, हर्षवश. विसपद्धदयः" मायने। सड थये। छे. २मा सवपहोना अर्थ पडदा स्पष्ट ४२वामा माया छ. "अहम्मिए जाब" मां मावस यावत् यथा 'अधष्टिः '
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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