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________________ राजप्रश्नीयम्। भ्रष्टरजः उपशान्तरजः प्रशान्तरजः कुर्वन्ति, कृत्वा लिममेव उपशाम्यन्ति, उप शम्य तृतीयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति, समवहत्य पुष्पवादलकानि विकुवन्ति, स यथानामकः मालामारदारकः स्यात् तरुणः यावत् शिल्पोपगतः एका महतीं पुष्पच्छादिकां वा पुष्पपटलकं वा पुष्पचङ्गेरिकां का गृहीत्वा राजा मेघों की विकृर्वणा कर के दिव्य अचित्त सुरभिगंधोदक को वृष्टि की (वामिना णियरयं, णहरयं, भट्टरयं, उवसंतरयं, पसंतरयं करेंति) वृष्टि करके उस स्थान को-श्रमण भगवान महावीर के पास के योजनपरिमित वर्तुलाकार स्थान को-निहतरजवाला, नष्टरजवाला, भ्रष्टरजवाला, उपशान्तरजवाला और प्रशान्त रजवाला बना दिया (करिना खिप्पामेव उत्रसामंति इस तरह से उस स्थानको विशुद्ध करके वे शीघ्र ही वृष्टिरूप कार्य से दूर हो गये अर्थात् वृष्टिरूप कार्य उन्होंने बन्द कर दिया (उत्सामित्ता तचंपि वेउनि यसमुग्धाएणं समोहगंति) वृष्टिरूप कार्यसे विरक्त होकर फिर उन्होंने तृतीय चार भी बैंक्रिय समुदघात किया (समोहणित्ता पुप्फवदलए विउवंति) वैक्रिय समुद्घात करके उन्होंने पुष्प बरसाने वाले मेघों की विणा की (से ना. नामए मालागारदारए सिया, तरुणे जाव सिप्पीवगए, एग महं पुप्फ छजियं वा पुप्फपडलगं वा पुप्फचंगेरियं वा गहाय) जैसे कोई एक मालीका चालक हो और वह तरुण यावत् शिल्पोपगत हो तो वह जेस एक पुप्पच्छा दिका-पुष्पपात्रविशेप को, अथवा पुष्पभाजनविशेष को, या पुष्प की चहे. ४२ ०य भयित्त सुलिग (सुवासित pil) नी वृष्टि की. (वासित्ता गिह परय णहरय, भट्टरयं, उत्रसंतरयं, पसंतरयं करेंति) वृष्टि ४ ते સ્થાનને-શ્રમભગવાન મહાવીરની પાસેના જન પરિમિત વર્તુલાકાર સ્થાનને નિહત २४ाणु-ट' : भ्रंट २०४३॥, Giशत२०१ पाणु मने aid २/41Y मना'! धु. (करित्ता खिपामेव उवसामति) मा शते ते स्थानने विशुद्ध, ॐशने तेमाये सत्वरे वृष्टि ३५ अयने म श धु. (उपसामिना तच्चशि वेर चियसमुग्धारण समोरपणंति) वृष्टि ३५ आय या वि२४त ने पछी तमाणे त्री मत ५ पठिय समुद्धात या. (समोहणिना पुप्फबद्दलए विउध्वंति) यि समुद्धात २ तेभए भुपवर्षावना भवानी विgu ४N (से जहा नामए मालागारदारए सिया, तमगे जाब सिप्पोवगर, एग मह पुकछज्जियं ना पुप्फपडलंग वा पुप्फचगेरिय वा गहाय) is : भागातुं uns ય અને તે તરુણ યાવત શિપગત હોય તે તે જેમ એક પુષ્પાચ્છાદિકા-પુપ __पात्र-विशेषन -मया मान विशन पुष्पनी याने दाने (रायम
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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