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________________ बोधिनी टीका सू. ९२ सूर्याभिदेवस्य प्रतिमा पूजाचर्चा ६५७ तथा - धर्म क्रियापेक्षया देवा नैरयिकायाधार्मिकाः प्रतिपादिताः सन्ति अंतो' देवानामनुकरणेऽधर्मो भवति, तस्मात् प्रतिमापूजा सर्वथा परित्याज्यैव (६) किञ्च यदि प्रतिमापूजया सम्यक्त्वस्य प्राप्तिः स्यात्तदाऽनेकवार' देवभव प्राप्तिरूप नो भवेत्, सम्यक्त्वमाप्त्यैव मोक्षप्राप्तिरपि सम्यद्येत ( ७ ) 'जिनोधर्माचरणविषये 'एस मे पेच्चा हियाए, सुहाए, खेमाएं' एतने मे हिताय, सुखाय, क्षेमाय इत्यादिपाठः समुपलभ्यते, लौकिके च 'पच्छा पुरा यहियाए सुहाए खेमाए' पश्चात् पुरा च हिताय, मुखाय, क्षेमाय' इत्यादिपाठा परम्परामाप्तो वर्तते, तथा च धर्माचरणस्य पाठे 'पेच्चा' प्रेत्य, परभवार्थम् इति ईदृशः पाठो वर्तते किन्तु राजप्रश्नीये सूर्याभदेवस्य पाठे - 'पच्छाय' पश्चात, पुरा च, इतीदृशः पाठ एवं वर्तते न तु 'पेच्चा' प्रेत्य इतिपाठः, तावतापि ज्ञायते यत् इयं प्रतिमा पूजा क्रिया न धर्माय कल्पते (८) धर्मक्रिया की अपेक्षा से देवों को एवं नैरयिकों को अधार्मिक कक्षा गया है अतः देवों का अनुकरण करने में अधर्महाता है. इसलिये मूर्तिपूजा सर्वथा छोड़ने के योग्य ही है । . किञ्च -- यदि मूर्तिपूजा से सम्यक्तव की प्राप्ति होती तो फिर अनेक बार जो देवभव की भाप्ति होती है, वह नहीं होनी चाहिये क्यों कि सम्यक्ती को धर्म से मोक्षप्राप्ति ही हो जावेगी । ७- जिनोक्त धर्म के आचरण के विषय में 'एस मे पेच्चा हियाए, सुहाए, खेमाए' जो ऐसा पाठ उपलब्ध होता है और लौकिक में 'पच्छा पुरा य हियाए, सुहाए, खेमाए' ऐसा पाठ परम्परा से प्राप्त होता है-सो धर्मा'चरण के पाठ में 'चा' ऐसा पाठ है. किन्तु राजप्रनीय में सूर्याभदेव के पाठ में 'पच्छा पुराय' ऐसा पाठ है 'पेचा' ऐसा पाठ नहीं है. अतः ધ ધર્મક્રિયાની અપેક્ષાએ વિચાર કરતાં વેાને અને નૈયિકાને અધાર્મિક કહેવા માં આવ્યાં છે એથી દેવાને અનુસરવામાં અધર્મ હાય છે. એથી મૂર્તિપુજા સયા ત્યાજ જ છે. "" “ વળી, જો મૂર્તિ પૂજથી સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ થતી હાત તેા પછી અનેકવાર જે દેવભવની પ્રાપ્તિ થાય છે તે ન થવી જોઈએ. કેમકે સમ્યકવીને તેા ધર્માંથી મોક્ષપ્રાપ્તિ જ થઇ જશે. ७-निनोउत धर्मना भायरशुना संबंधभां 'एस मे पेच्चा हियाए, सुहाए, सेमाए' ने भी जतनों थाउ उपसण्ध थाय छे भने लोभि 'पच्छा पुराय वि. बीए, सुहाए, खेमाए' पर पराथी आप पाठ भणे है. धर्भान्यरना पाठमा 'पेच्चा' मालता था. छे. या राज्यश्रीयमा सूर्यालहेवना पाठमा 'पेच्छा पुरा य'
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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