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________________ ६०८ चमर इन 1 च पालय, जितमध्ये वस, इन्द्र इव देवानां चन्द्रइव ताराणाम्, असुराणाम्, धरण इत्र नागानां भरत इत्र हुजानां बहूनि पल्योपमानि बहूनि सागरोपमाणि बहूनि पत्योपमागमेषमाणि चनपूणां सामानिक-माहस्रीण यावत् आत्मरक्षदेवसाहस्रीणां सूर्याभस्य विमानस्य, अन्येषां च कहा - ( जयजयनंदा, जयजयभद्दा, जयजयनंदा ! सङ्घ ते अजियं तिणाहि, जियं च पालेहि ) हे समृद्धिशालिन । तुम अत्यन्त जयशाली हो ओ । हे कल्याणकारिन् । तुम्हारी जयजय हो, हे जगदानन्दकारक ! तुम्हारा बारंबार जय हो। तुम्हारी कल्याग हो । तुम अजित शत्रुको स्वाधीन करो । जीने हुए शत्रु का पालन करो (जियम साहि) जीते हुएअपने अधीन बने हुए देवों के मध्य में रहो (इदो इत्र देवाण, चंदो इत्र ताराणी, चमरी इत्र असुराण, धरणो इन नागाणं, भरहो इछ मणुयाण, बहूइ पलिओ माइ, बहूड सागगेबमाई) तुम देवों के बीच में इन्द्र की तरह, नाराओं के बीच में चन्द्र की तरह, असुरो के बीच में चमर की तरह, नाय के बीच में धरण को तरह और मनुष्यों के बीच में भर का दरह, अनेक पल्योपमतक, अनेक मागरोपमतक और (हुई पलिओ वम सागरोत्रमाई ) अनेक पल्योपमसागरोपमतक (चउई सामाणियसाहस्सीणं) चार हजार सामानिक देवों का ( जात्र आयरक्खदेवसाहस्सीन) १६ हजार आत्मरक्षक देवोंका, तथा (सरियाभविमाणवासिण) सूर्याभ विमान का, एवं (अण्णेसिच भद्दा, जयजय नंदा ! भद्दते, अजिय जिणाहि, जियं च पाछेहि) हे समृद्धि શાલન્! તેમ અતીવ જયશાલી થાએ. હું કલ્યાણકારિન તમારી જય જય થાઓ. હે જગદાન દકારક ! તમારી વારંવાર જય થાઓ. તમારૂ કલ્યાણ થાઓ. તમે અજેય शत्रुने स्वाधीन णनावो. विन्ति शत्रुनुं तमे चालन ४२ (जियलझे क्षमाहि) प्रेमना " ५२. विनय भेजव्या छ तेवा हेवानी वरये आप निवास ४२. (इंदो ईव देवाण चंद्रो इव तारण, चमरो इन असुराणं, धरणो इत्र नांगाण, भरहों इ मणुयाण, बहूइ पलिओ माई, बहूद्द सागरोत्र माह) तमे हानीवस्येन्द्रनी જેમ, તારાઓની વચ્ચે ચન્દ્રની જેમ, અસુરાની વચ્ચે ચમરની જેમ, નાગાની વચ્ચે ધરણની જેમ અને માણસેાની વચ્ચે ભરતની જેમ ઘણા પલ્યેાપમા સુધી, ઘણા सांगरोपभ सुधी गने (बहूइ पओिवमसागरोवमाइ ) धंांथा यस्योपमं सागशयभ सुधी (चंउन्हं सांमाणियसाहस्सीण) यार डलर सांभांनि हेवा 'घर' (जाब airedदेसाईसी) १६ ईन्नर आत्मरक्षा वो पर भने ( सूरियाभस्स विमाणस्स) सूर्यालविभान 'पर' मने (अण्णे सिंच बहूण सूरियोभविमाणः राजश्री
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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