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________________ सुयाधिनी रीका. सू. ८७ सूर्याभविभानस्य देवकृतसज्जीकरणादिवण'नम् अप्येकके देवाः कलशहस्तगताः यावत् धृपकटुच्छुक हस्तगता हृष्टतुष्ट-यावद हृदयाः सर्वतः समन्तात् आधावन्ति परिधावन्ति ।। मू० ८७॥ ' एण' इत्यादि टीका-तनः लु तस्य सूर्याभस्य देवस्य महति महति अतिवि- . शाले इन्द्राभिषेके वर्तमाने इन्द्रत्वेन प्रतिष्ठानावसरभाविनि अभिषेके विद्य. माने सति, अप्येकके केचिद् देवाः सूर्या विमान नात्युदक नास्ति अतिशयम् उद-जल यस्मिस्तद, तथा-नांतिमृत्तिक नाम्ति अनिशया अत्यधिका मृत्तिका यस्म्मितत्, एतादृशं यथास्यात्तथा, अविरलस्पृष्टरेणुविनाशनम्-प्रकर्षेण विरल स्पृष्ट रूपर्यो यस्य तत् पविरलस्पृष्टम् यावता कर्दमो न भवेत्तावद् चेलुक्खेवं करेंति) तथा-कितनेक देवो ने देव संबंधी 'दुहदुह' ऐसा अनुकरणात्मक शब्द किया, कितनेक शेने स्त्रों की बरसा की, तथा कितनेक देवाने देवसन्निपात आदि से लेकर चेलोन्क्षेपतक के सब ही काम किये. (अम्पेगइया देवा उपलहत्थगया जाव ध्रुवकडच्छयहत्थगया हहतुट्ठ जाव हियया सबओ समंता आहावंति परिहावंति) तथा कितनेक देव ऐसे हुए कि जिनके हाथ में चन्द्रविकाशी कमल थे. यावत् धूपकाच्छुक थे। ये सब देव हृष्ट थे एवं संतुष्ट चित्त थे, यावत् इधर से दौड रहे थे और परिपाटी से दौड लगा रहे थे। टीकार्थ-इस सत्र का मूलार्थ के ही जैसा है. परन्तु कही२ जो विशेषता है. वह इस प्रकार म है-'प्रविरलस्पृष्ट रेणुविनाशन" यह विशेषण वर्ष पद का है. वर्ष का अर्थ वृष्टि है सो इस प्रकार से दिव्य सुरभिगधोदक की उन्होंने . देव कहकहग देवदुहदुहग' चेलुक्खेव करेंति) तेभल ४८सा हेवा व समाधी ‘દુહ દુહ એ અનુકરણાત્મક શબ્દ કર્યો, કેટલાક દેવોએ વસ્ત્રોની વર્ષા કરી. તેમજ કેટલાક દેવાએ દેવસન્નિપાત વગેરેથી માંડીને ચેલેસ્લેપ સુધીના સર્વ કાર્યો કર્યા. (अप्पेगइया दवा उप्पलहत्थगया जान धूवकडच्छयहत्थगया. हहतु जाब हियया मनओ समता आहावंति परिहाति) तेमन सा हे। એવા પણ હતા કે જેમના હાથમાં ચન્દ્રવિકાશી કમળ તાં. પાર્વત ધૂપ કચ્છ હતા. આ સર્વ દેવ હૃણ હતા તેમજ સંતુષ્ટ ચિત્ત હતા પાર્વતું આમથી તે દોડાદોડ કરી રહ્યા હતા અને કેમાંનુસાર દોડી રહ્યા હતા. - ટાર્થ –આ સૂત્રને ટીકાથ મૂલાર્થ પ્રમાણે જ છે. પણ કેટલાંક વિશિષ્ઠ કથનોનું स्पष्ट.४२ प्रभारी छ.--'प्रविरलस्पृष्टरेणुविनाशन' मा शो ' नi વિશેષણરૂપે વપરાયા છે. વર્ષનો અર્થ વૃષ્ટિ થાય છે. એવી રીતે તેમણે દિવ્ય સુરભિ
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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