SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजप्रश्नीयसूत्रे ३६ चन्दध्वं नमस्यत वन्दित्वा नमस्त्विा स्वानि स्वानि नामगोत्राणि कथयत, कथयित्वा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सर्वतः समन्तात् योजनपरि मण्डलं यत् किञ्चित वा पत्र वा काष्ठ वो अशुचि या अनो वा पूतिकं वा दुरभिगन्ध वा सर्वमाधूयाऽऽधूय एकान्ते एडयत एडयित्वा नात्युमहावीर तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेह) जम्बूद्वीप नामके द्वीप में - मध्यजम्बद्वीप में जो भरतक्षेत्र है और उसमें भी जहां आमलकल्या नामकी नगरी है. तथा उसमें भी जो आम्रसालवन नामका उद्यान है-वहां जाओक्योंकि वहां श्रमण भगवान् महावीर विराजमान हैं सो वहां ना कर तुम लोग उनकी तीन प्रदक्षिणा करो - (करिता चंदह) प्रदक्षिणा करके उनको वन्दना करो ( णमंसह) उन्हें नमस्कार करो ( वंदित्ता णमंमिता साई साई गाई साह) वन्दना नमस्कार करके अपने नामगोत्रों को कहो -1 ( माहित्ता समणस्स भगवओं महावीरस्स सव्वओ समता जोगणपरिमंडलं जं किंचि तणं वा, पत्तं वा, सक्कर वा असुड़ वा, अचोक्खं वा, पूयं वा, दुच्भिगंधं वा तं सन् आहुणिय२ एगते अडेह) अपने२ नामगोत्रों को कहकर फिर श्रमण भगवान महावीर के पास की एक योजनपरिमित गोलाकार भूमि को तुम लोग अच्छी तरह से जो कुछ भी वहां तृण पड़े हों, पत्ते पढे हों, काष्ठ पडा हो, या कंकंड पत्थर पडे हों, या कोई अरवि वस्तु पडे हो. मलिन वस्तु हो या सड़ी गली दुर्गन्धित वस्तुपडी हो, उन सबों को सम भगव महावीर तिक्खुत्तो भयाहिणपयाहिण करेह) शूदीय નામના દ્વીપમાં-મધ્યજ્ર' દ્વીપમાં જે ભરત ક્ષેત્ર છે અને તેમાં પણુ જ્યાં આ મલલ્પા નામે નગરી છે તેમજ તેનાં આમ્રસાવન નામે ઉદ્યાન છે ત્યાં જાએ. કેમકે ત્યાં શ્રવણુ ભગવાને મહાવીર વિરાજમાન છે ત્યાં જઈને તમે તેઓશ્રીની ત્રણ પ્રશ્નक्षिणा (करिता दह) अहक्षिणा उरीने तेमने वहन (गमंसह) तेथे श्रीने नभस्४२ ४३. (वंदित्ता णमंसिता साई सा नागोबाई साहे) वढना ते नमस्कुञ्जर हुरीने पोताना नाम गोत्रना उभ्या शे. (साहित्ता समगस्स भगवओ महावीर सञ्चओ समता जोयगपरिमंडल' जं किंचि तणं वा, पत्ता व वा सक्क वा असुईवा, अवोक्खं वा पूवा दुब्भिगंध वातं सत्र आहूणिय २ एते एडेड ) ये तपोताना नाम गोत्रोनां उच्चारण ने તમે શ્રષ્ણુ ભગવાન મહાવીરની -પાસે એક ચેાજન જેટલી ગેાળ આકાર ભૂમિને સારી રીતે જે કઈ ત્યાં તૃણુ પડેલાં હાય, પાનાં પડેલાં હાય, લાકડાં પડેલાં હાય કંઈ પણુ જાતની અપવિત્ર વસ્તુ પડેલી હોય, મલિન વસ્તુ .હાય કે સડી ગયેલી
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy