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________________ राजप्रश्रीयसूत्रे तेषु खलु उत्पातपर्वतेषु यावत् पक्षान्दोलकेषु बहूनि हंसासनानि क्रौञ्चासनानि गरुडासनानि उन्नतासनानि प्रणतासनानि दीर्घासनानि भद्रा सनानि पक्षासनानि सकरासनानि वृषभासनानि सिंहासनानि पद्मासनानि दिक्मौवस्तिकानि सर्वरत्नमयानि यावत् प्रतिरूपकाणि ॥ ० ६५ ॥ ટ टीका -- 'तासिणं खुड्डाखुडियाणं' इत्यादि - तासां - पूर्वोक्तानां खलु क्षुद्राक्षुद्रिकाणां - लघूनां महतीनां यावत् यावत्पदेन पुष्करिणीनां दीर्घिकाणां अनेक स्फटिक मञ्च हैं, अनेक स्फटिक मोसाद हैं, इनमें कितनेक ऊचे हैं, कितने बहुत छोटे हैं अनेक आन्दोलक - झले हैं, अनेक पक्षियों के आन्दो लक हैं ये सब सर्वरत्नमय हैं, निर्मल हैं यावत् प्रतिरूप हैं । (तेमु णं उप्पायपन्त्रएसु जात्र पक्खंदोलएसु बहू हंसासणाई' कोंचासणाई गरुला सणाई) उन उत्पाद पर्वतों से लेकर पक्षान्दोलकों तक में सब में अनेक हँसासन, अनेक क्रौंचासन अनेक गरुडासन (उन्नयासणाई, पणयासणाई, दीहासणाई) अनेक उन्नतासन, अनेक प्रणतासन अनेक दीर्घासन ( भासणाई, पक्खासणाईं, मगरासणाई, उसभासणाई, सीहासणाई, पउमासणाई, दिसासोवत्थियाइ सव्वरयणानयाई अच्छाई जात्र पडिवाइ) अनेक भद्रासन, अनेक पक्षासन, अनेक मकरासन, अनेक नृपभासन, अनेक सिंहासन एवं अनेक दिक्सौवस्तिक है' ये सब सर्वथा रत्नमय है अच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । टीकार्थ -- उन छोटी बडी बावडिओं के याद- पुष्करिणियों के दीर्घिकाओं के, जालिकाओं के, सरः पंक्तियों के, सरः सरः पंक्तियों 'नीया है. घणा भान्होसड़ी-गुलामो–छे, घणा पक्षीगोना मान्होसो है. मे सर्वे रत्नभय छे, निर्माण यावत् प्रति३५ है (तेसु णं उप्पापचएस जाव पक्खंदोलएसु बहूद्द' हंसासणाई को चासणाई गरुलासणाई) या उत्याह पर्वताथी भांडीने पक्षान्होसडी सुधीना मधाभां धणा सासना, धणा यासना. धां गरुडासना ( उन्नयासणाई, पणयासणाड़ दीहासगाइ) धां उन्नतासना, धां प्रयुतासन। घणां दीर्घासना (भद्दासणाइ' पक्खासणाई मगरासणाइ उमभासणाई सीहासणाड़ पउमासाई, दिसासोत्थियाई सच्चरयणामाई अच्छाई जात्र ભદ્રાસના, ઘણાં પક્ષાસના, ઘણાં મકરાસને, ઘણાં વૃષભાસના ઘણાં સિંહાસને અને ઘણાં 'पडिरूप, घji દિક્સીસ્તિકા છે. એ બધાં સર્વથા રત્નમય છે, અચ્છ છે યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. ટીકાએ નાની મેાટી વાપીકાએ યાવત્ પુરણું આને, દીકાઓને ગુંજાલિકાઓને, સર:પત્તિઓને સરઃસરઃ ૫'કિતઓને તેમજ ફૂપસ્થાનીય ખિલેને દરેકે દરેક
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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