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________________ - सुपाधिमी टीका. सू. ६१ सूर्याभविमानवर्णनम् टीका-'मूरियाभे णं विमाणे' इत्यादि-सूर्याभे खलु विमाने एकैकस्मिन्--प्रत्येकद्वारे अष्टशतम्--अष्टाधिकशतं, चक्रध्वजानां चक्राङ्कितध्वजानाम्, पुनःअष्टशतम् मृगध्वजानां मृगाङ्कितध्वजानाम्, एवं गरुडध्वएक २ करके एक २ माकार से परिवेष्टित हैं। तथा कृष्ण और कृष्णा कन्तिवाले हैं। (हरिया, हरियोमासा, सीमा, सी गोमाला, निद्धा निद्वोमासातिव्वा, तिन्योभासा, किण्हा, किण्हच्छाया, नीलो, नीलच्छाया, हरिया हरियच्छाया, सीयासीयच्छाया, निद्धा निद्धच्छाया, घणकडितडितच्छाया, रम्मा, महामेहनिकुरंबभूया) हरित हैं, हरितकान्तिवाले हैं, शीत स्वरूप हैं, शोतकान्तिवाले हैं, स्निग्ध है और स्निग्नकान्तिवाले हैं, तीत्र हैं, और तीव्र अवभासवाले हैं, कृष्ण हैं; कृष्ण छायावाले हैं, नील हैं, नील छायाबाले हैं हरे हैं, हरीछाया वाले हैं, शीत हैं, शीत छाया घाले हैं, स्निग्ध हैं स्निग्ध छायावाले हैं, वृक्षों की शाखाएं एक दूसरे वृक्षों की शाखाओं से आपस में मिली हुई थी. ये वनषण्ड बडे ही — सुहावने हैं। वे. वनषंड महामेघ के विशाल समुदाय जैसे हैं (तेण, पायव मूलमंतो वनसंड वण्णओ) इन वनपण्डों के वृक्ष जमीन के भी तार गहरी फैली हुई बडी २ जडों वाले हैं इत्यादि रूप से वृक्षों का वर्णन यहाँ पर करना चाहिये, इस प्रकार से यह वनषण्डों को वर्णन है। टीकाथ-सूर्याभविमान के प्रत्येक द्वार में १०८ चक्रध्वजाए हैं, अर्थात् इन ध्वजाओ में चक्र का चिह्नवाला हुआ है. इस कारण इन्हें चक्रचिह्नोपलक्षित होने के कारण चक्रध्वनाएं कही गई है, इसी प्रकार से आगे अन्य ध्वजाओं में भी उन २ चिह्नों से युक्त होने के कारण तत्त. વાળ છે, સ્નિગ્ધ છે. અને સ્નિગ્ધકાંતિ છે. તીવ્ર છે અને તીવ્ર અવભાસવાળા છે. दृश्य छ, go छायावाण छ. नी छ, नसीछायावाछ, elei छ, eleी छायाવાળ છે, વૃક્ષની શાખાઓ પરસ્પર એકબીજા વૃક્ષોની સાથે ભેગી મળેલી છે. એ बना भाभधाना विशाल समुदाय वा सागे छ. (ोणं पायवा मूलमंतो वससड वण्णओ) से बनाना । पृथ्वीनी महर 31 पडायसी मोटी भारी જવાળા છે, વગેરે રૂપથી અહી વૃક્ષોનું વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે આ વનડેનું વર્ણન છે. ટકાથ–સૂર્યાભવિમાનના દરેકે દરેક દરવાજામાં ૧૦૮ ચક્રધ્વજાઓ છે, એટલે કે ધ્વજાઓમાં ચકનું ચિન્હ બનેલું છે એથી જ એમને ચકચિહિત હોવા બદલ છકળાઓ કહેવામાં આવી છે. આ પ્રમાણે જ બીજી દવાઓમાં પણ તે તે ચિહ્નો થી યુક્ત હવા બદલ તન્નામધેયતા જાણવી જોઈએ. ૧૦૮ થી મૃગાંક્તિ દqજાઓ
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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