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________________ सुबोधिनी टीका. सू. ६० सूर्याभविमानवर्णनम् stateकण्ठौ गजकण्ठौ नरकण्ठौ किन्नरकण्ठौ किंपुरुषकण्ठौ महोरगकण्ठौ गन्धर्वण्ठौ वृषभकण्ठौ सर्वरत्नमयौ अच्छौ यावत् प्रतिरूपौ । तेषु खलु हयकण्ठेषु यावद् वृषभकण्ठेषु द्वे द्वे पुचङ्गेय माल्यचङ्गे चूणच गन्धचक्रे वस्त्र आभरणचंडेय सिद्धार्थ लोमहस्तच प्रज्ञप्ते, सर्वरत्नमय अच्छे यावत् प्रतिरूपे । तासु खलु पुष्पच ङ्गेरिकासु यत् लोमभी अपनी प्रभा से उन अपने आमन्न पाप्त स्थानों को सब दिशाओं एवं विदिशाओं में प्रकाशित करते हैं उद्योतित करते हैं, तापित करते हैं, प्रभासित करते हैं । (तेसि णं तोरणा णं पुरओ दो दो हयकंठा गयकठीनरकंठा किन्नरकंठा किंपुरिसकंठा, महोरगकंठा, गंधव्त्रकठा, उस भकंठा, सव्वरयणामग्रा अच्छा जाव पडिवा) उन तोरणों के आगे दो दो घोडे की आकृति जैसे घोडला कहे गये हैं, इसी प्रकार दो दो गजकठे, नरकंठ. किंनरक ंठ, किंपुरुषकंठ, महोरगकंठ, गन्धर्वकंठ और हृषभकण्ठ कहे गये हैं । ये सब हथकण्ठादिक सर्वथा रत्नमय हैं, अच्छ-निर्मल यावत् - प्रतिरूप हैं । (तेसु णं हयकंठएसु जाव उसकठेएस दो दो पुप्फ चंगेरीओ मल्लचंगेरीओ चुण्णचंगेरीओ गंधचंगेरी, वत्थचंगेरोओ, आभरणचंगेरीओ, सिद्धत्थच गेरीओ, लोमहत्थच गेरोओ, पण्णत्ता) उन हयकठों से लेकर पभकठौतक के ऊपर दो दो पुष्पच' गेरीकाएँ - पुष्प रखने की चारिकाएँ चूर्णच गेरिकाए, गंधर्ववगेरिकाएं वस्त्रवगैरिकाएं, आभरणचरिकाए, सिद्धार्थ - सर्षपच गेरिकाएं, एवं लोमहस्तचंगेकाए कही गई हैं । કરડકા પણ પેાતાની પ્રભાથી પેાતાની આસપાસના પ્રદેશને સર્વી દિશાએ તેમજ વિદિશાઓમાં પ્રકાશિત કરે છે, ઉદ્યોતિત કરે છે, તાપિત કરે છે, પ્રભાસિત કરે છે. ( तेर्सि णं तोरणां पुरओ दो दो हयकंठा गयकंठा, नरकंठा किन्नरकंठा किंपुरिसकंठा, महोरगकंठा गंधव्कंठा, उसकठा. सवरयणा मया अच्छा जाव पडिवा) ते तारलोनी साभे मम्मे घोडानी आकृति नेवा घोडसाम आहेवाय है. मा प्रभाहो न जन्मे है, न२४४, उन्नर:४, पुरुषः ४ महोरगहुँ, ગ ધવક અને વૃષભક" કહેવાય છે. આ બધા યક વગેરે સર્વાત્મના રત્નમય छे. अग्छ-निर्माण यावत प्रति३ छे. (तेलु णं इयकठएसु जाव उसभकंठेएलु दो दो पुष्पचंगेरीओ मलचंगेरीओ, चुणाचंगेरीओ, गंधच गेरीओ, वत्थचंगेरीओ, आभरणच गेरीओ. सिद्दत्थच गेरी श्रो, लोमहत्थच गेरीओ पण्णत्ताओ) તે હુયક ઠાથી માંડીને વૃષભકા સુધીના બધા ઉપર ખખ્ખું પુષ્પ મૂકવાની છાંમ ચૂણ મૂકવાની છાખા, ગધ મૂકવાની છાખા, વસ્ર મૂકવાની છા, આભરણુ મૂકવાની • ==== ३८७
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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