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________________ राजप्रश्नीयमन्त्र निहत्य विकृत्वः मूर्धानं धरणितले निवेशयति, निवेश्य ईषत् प्रत्युन्नमयति ईपत् प्रत्युन्नमय्य कटकत्रुटितस्तम्भितभुजौ संहरति संहृत्य करतलपरिगृहीतं दशनखं शिर आवत मस्तके अञ्जलि कृत्वा एवमवादी-नमेाऽस्तु अहंद्यः भगवद्भयः आदिकरेभ्यः तीर्थकरेभ्यः स्वयं सबुद्धेश्यः पुरूपोत्तमेभ्यः पुरुषसिंहेभ्यः पुरुपवरपुण्डरीकेभ्यः पुरुषवरगन्धहस्तिभ्यः लाकात्तमेभ्यः लोकनाथेभ्यः लोकहितेभ्यः लोकपदीपेभ्यः लोकप्रद्योतकरेभ्यः थे उस दिशा में गये, (अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ) सन्मुख जाकर उसने अपनी वामजान को ऊंचा किया (चित्ता दाहिणं जाणु धरणितलंसि निहटु तिनुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि गिवे सेइ) वामजानु को ऊँचा करके दक्षिण जानु को नीचे स्थापित कर के तीन बार मस्तक को पृथ्वी ऊपर नवाया-झुकाया-उसे पृथ्वी पर रखा (णि वेसित्ता ईसिंपच्चुन्नमेइ) रखकर फिर उसे कुछ ऊचा उठाया (ईसिं पच्चुन्नमित्ता कडग तुडियथंभियभुयाओ साहरइ) कुछ ऊंचा उठाकर फिर उसने कटक एवं त्रुटित से स्तम्भित हुए अपने दोनों बाहुओं को संकुचित किया (साहरिता करयल परिगहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिंक एवं बयासी) संकुचित करके करतलौ से परिगृहीत, एवं दशनखों से युक्त ऐसी अंजलि बनाई और उसे फिर शिरः प्रदेश परघुनाया, घुमाकर फिर उसने इस प्रकार कहा(नमोत्थुणं अरिहंताणं, भगवंनाणं, आदिवाणं. नियघराणं सयं संबुदागं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुंडरीयाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं. लोगनाहाणं, लोगहियाणं. लोगपईचाणं) रागादिप शत्रुओं पर जाणु अंचेइ) सामे न तो पोताना ॥ धूटने या ध्या, (अचित्ता दा. हिणं जाणु धरणितलंसि निह तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि णिवेसेइ) ડાબા ઘૂટણને ઊચું કરીને જમણા ઘૂંટણને નીચે સ્થાપિત કરીને ત્રણ વાર મસ્તકને પૃથ્વી S५२ नभाव्युनभावी ते तेरी पृथ्वी ५२ ११ राज्यु- (णिवेसित्ता ईति पच्चुन्नमेड) जान १ तेने थाई यु यु', ईति पच्चुन्नमित्ता कडगतुडियर्थभिय भुयाओ साहरइ) थाई यु ४शन ३ तेणे ४७४ मने त्रुटितथा तलित पाताना माने जाने सयुस्थित ४ा. (साहरित्ता करयल परिग्गहिथं दसणह सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कडे एवं वयासी) सायाने थेजीमा भने शन पाणी અંજલિ બનાવી અને તેને ફરી મસ્તક ઉપર ફેરવી અને ત્યાર પછી તેણે તેણે પ્રમાણે કહ્યું કે (नमोत्थुणं अरिहंताणं, भगवंताणं, आदिगराणं तित्थगराण सयं संयुद्धाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुंडरीयाणं, पुरिसरगंधहत्थीण', लोगुत्तमाण लोगनाहाणं, लोगहियाण, लोगपईवाणं) २२०० वगेरे ३५ शत्रु। ५२ वि/य भेना२ ॥६
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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