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________________ सुबोधिनी टीका. सू. ५५ सूर्याभविमानवर्णनम् तहेमजालावाक्षजालकिङ्किणीघण्टाजालपरिक्षिप्ताः अभ्युद्गताः अभिनिसृष्टाः तिर्यक्सुसंपरिगृहीताः अधः पन्नगार्धपाः पन्नगाध संस्थानसंस्थिताः सर्ववज्रमयाः अच्छा यावत् मतिरूपा महान्तः महागजदन्तसमानाः प्रज्ञप्ताः श्रमण! आयुष्य. मन्! तेषु वलु नागदन्तके पु बहवः कृष्ण सूत्रबद्धाः अवलम्बितमाल्यदाम कलायाः नीललोहित-हारिद्र-शु मूत्रबद्धाः अवलम्बिनमाल्पदामकलापाः। तानि खलु गवक्खजालखिखिणी घंटाजालपरिक्खित्ता) ये खूटियां मुक्ताफल समूह के बीच में अवलम्बमान स्वर्णमयमाला समुदाय से तथा गवाक्षाकार रत्नविशेप के समूहों से तथा छोटी घंटाओं के समूहों से सर्वतः परिवेष्टित हैं, (अमुग्गया अभिणि सिहा तिरियसुसंपरिगहिया अहे पन्नगदख्वा पन्नगद्धसंठाण सठिया सव्यवयरामया अच्छा जाव पडिरूवा महया महया गयदंतसमाणा पण्णत्ता समाणाउसो!) ये सब खूटियो सामने की ओर निकली हुई हैं, तथा बाहर की ओर भी निकली हुई हैं. तशा तिर्यगभित्तिप्रदेशों द्वारा ये सब अच्छी तरह से अपने में स्थिररुप से अवलम्बित की हुई है. अर्थात् बहुत ही अच्छी तरह से ये सब जूटियाँ गहरेरूप से भित्तियों में ठुकी हुई है कि जिससे ये इधर उधर न हो सके, अतिसरल और दीर्घ होने से इनका आकार स4 के अधोभाग का जैसा आकार होता है वैसा है ये सब सर्वथा रत्नमय हैं यावत् प्रतिरूप हैं, विशाल हैं अतः हे श्रमण आयुष्मन् ! ये विशाल गजदन्त के जैसी कही गई हैं। (तेलु णं णागदंतएलु बहवे किण्हमुत्तरद्धा वग्धारियमल्लपरिक्खित्ता) २ माटामा भातीयाना ये सटती भागमा तमा अपाक्षाार રત્ન વિશેષના સમૂહથી, અને નાની ઘંટડીઓના સમૂહથી મેર વીટંળાયેલી છે. (अ०भुग्गया अभिणिसिहा तिरियसुसंपरिग्गहिया अहे पन्नगद्धख्वा पन्नगद्धसंठाणसंठिया सव्यवयरामया अच्छा जाव पडिरूवा महया महया गमदंतसमाणा पण्णता समणाउसो !) मा मधी भीटीमा सामे नक्षी छ. તેમજ બહારની તરફ પણ નીકળેલી છે, તેમજ તિર્યગ ભિત્તિ પ્રદેશવડે આ બધી સારી રીતે મજબૂતીથી અવલંબિત કરવામાં આવી છે એટલે કે બહુ જ સારી રીતે તે બધી ખીંટીઓ દીવાલની એકદમ અંદર ઠેકેલી છે. જેથી તેઓ આમતેમ ખસી શકે ન હ આ ખટીઓ સીધી અને લાંબી હોવા બદલ આકારમાં તે સર્ષના નીચેના ભાગ જેવી હતી, તેઓ બધી રત્નમય છે યાવતુ પ્રતિરૂપ છે, વિશાળ છે, હે શ્રમણ આયુશ્મન ! એથી જ એ બધી મોટા હાથી દાંત જેવી કહેવામાં આવી છે (तेसुर्ण कागद नएसु बहवे किमुत्पद्धा बग्धारियमल्लदामकलावा नील.
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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