SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुबोधिनी टोका. सु. ४० सूर्याभस्य समुद्घातकरणम् द्वितीयं वा तृतीय स्थानमा धराधति, अत एवाकम् 'शिरास तारम्' इति, म च स्वरः शिरसःप्रति-निनः सन् कण्ठे भ्रमति, तत्र भ्रमन् मधुरतरो भवति, अत एवोकम- 'कण्ठे fवतारम्' इति, इति सङ्गीतमक्रिया । एवं त्रिविधंत्रिप्रशारकं, प्रत्येकं विरेचकर विल-त्रयः समयाः - कालविभागविशेषा यस्मिन् सः, एता:शो रेचकः- श्वासवहिर्निस्सारणरूप:, तेन रचितं - सम्पादित्र गेव प्रगीतवन्तः । तथा-गुञ्जाऽरक्रकुहरोपगूढ-गुञ्जा-गुञ्जनं तत्पधानानि यानि अयकाणि-शब्दनिः सरणमार्गापतिकूलानि कुहरागि-विवराणि तैः उपग्रह - अभिघात करता हुआ सर आने ऊँचा हो जाता है उस सगम वह स्वर द्वितीय अथवा तृतीय स्थान पर आरूढ हो जाता है, इसलिये 'शिरसि तारम्' ऐसा कहा गया है । वह पर जब मस्तक से निवृत्त होता हुआ कण्ठ में भ्रमण करता है. तब वह भ्रमण करता हुआ वह मधुरतर हो जाता है, इसीलिये 'कठे वितारम्' ऐसी संगीत की प्रक्रिया है. इस प्रकार तीन तरह का प्रत्येक गेय उन्होंने त्रिसमयरेचक से रचित हुआ ही गाया. जिस रेचक में श्वासके बाहर निकालने मला समय-कालविभागविशेष लगते हैं उसका नाम विनमयरेचक है. इस त्रिसमययुक्करेचक सो जो गाना संपादित होता है वह गाना त्रिसमय रेचकाचित होता है । तथा ' गुन्जाबककुहरोपगूह गेयं गेयवन्तः' ऐसा गाना गाया कि जो गुजावककुहरोपगूह था गुन्ज नाम गुरुजन- गूंजने का है. जिस गाने में गुंजन प्रधान कुहर-विवर अथक शब्दों के निकलने के मार्ग से अभतिकूल होते है, और ऐसे कुहरों से जो गानो उपगूढ़-युक्त होता है, वह गाना 1 चमते ते स्वर मील त्रीम स्थान पर साइट थाई लय छे, भेटला भाटे 'शिर सि तारम्' आम वामां मायुं छे. मेथी ते स्वर क्यारे भस्तस्थी थाछी इसे કંઠમાં ક્રે છે ત્યારે ત્યાં ફરતા તે સ્ત્રર મધુર તર થઈ જાય છે. એવી જ कुंठेवितारम्' आ प्रमाणे त्रासां भाव्यु छे. मेत्री संगीतनी अडिया छेश ત્રણ જાતનું દરેકે દરેક ગી તેમણે ત્રિસમય રેચકથી રચિત થયેલું જ ગાયું. - રેચકમાં શ્વાસને બહાર કહાડવમાં-ત્રણ સમય—કાળ વિભાગ વિશેષ લાગે છે, તે त्रिसमय-रेया-रचित होय छ तेत्र 'गुञ्जावककुहरोपगूढ गेयं गेयवन्तः ' તેમણે એવું ગાયુ કે જે ગુંજાવ કુરાપગઢ હતુ. ગુંજા ગુંજનનું નામ છે. જે ગીતમાં શું ન પ્રધાન કુહર-ત્રિવર્અવર્ક શબ્દોને નીકળવાના માર્ગને અપ્રતિકૂળ અવા હાથી જે ગીત ઉપગૂઢ——યુકત—હાય છે, તે ગીત સુજાન 6 હાય
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy