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________________ १९७, सुबोधिनी टीका. सू. २४ भगवद्वन्दनार्थ सूर्याभस्य गमनव्यवस्था सणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसपणे। तएणं तस्स सूरियाभस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ तं दिव्वं जाणविमाणं अणुए शहिणी करेमाणा उत्तरिल्लेणं तिसोवाणप. डिरूएवणं दुरुहंति दुरूहित्ता पत्तेयं २ पुव्वणत्थेहि भद्दासणेहि णिसीयंति, अवसेसा देवा य देवीओ य तं दिव्वं जाणविमाणं जाव दाहिगेल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूहति, दुरूहित्ता पत्तेयं २ पुव्वणत्थेहि भहासणेहि निसीयति ॥ सू० २४॥ छायाततः स्वलू स मर्यामः देव आभियोगिकस्य देवस्य अन्तिके एतमर्थ आत्मा निशम्य दृष्ट याद् हृदयः दिव्यं जिनेन्द्राभिगमनयोग्यम् उत्तरक्रियरूपं विकरीति, विकृत्य घनभिरग्रमहिषीभिः द्वभ्यामनीकाभ्याम्, तद्यथा-गन्धर्वानीकेन च नादयामकिन च सार्द्ध संपरिघृतः तद् दिव्यं यान तएण से रियामे देखें' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तरण) इनके बाद (से सरियाभे देवे आभियोगियस्स देवस्स अानिए एयनÉ निसम्मा हट जाब हियए) उस सूर्याभ देवने जय आभियोगिक देव के मुख से इस अपनी आज्ञापूर्ति हो जाने की अर्थात् यान विमान को चैक्रिय द्वारा निष्पन्न कर चुकने की बात सुनो-तो सुनकर और उसे रदय में अवधारण कर वह बहुत ही अधिक संतुष्ट एवं प्रसन्नचित्त हुभा (दिव्यं जिणिदाभिगमणजोग्गं उत्तरवेउन्धियरूवं विउन्बइ) और उसने उसी समय जिनेन्द्र के पास जाने योग्य दिव्य उत्सर वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा की (वउवित्ता चउहि अग्गमहिसीहि सपरिवाराहि दोहि 'तएंण'. से मुरियामे देवे इत्यादि । सूत्रार्थः-(तए ण) त्या२ पछी (से सरियामे देवे आभियोगियस्य देवस्य अतिए एयम निसम्म हट जाव हियए) ते सूर्यानवे न्यारे मालियोगिः દેવના મુખથી પિતાની આજ્ઞા પૂરી થઈ જવાની એટલે કે વિક્રિય શક્તિ વડે યાનવિમાનની વિકૃણા થઈ જવાની વાત સાંભળીને અને તેને બરાબર હદયમાં ધારણ ४ीन-ते. सती संतुष्ट तेभ प्रसन्नचित्त थयो. (विच्च जिणिंदाभिगमणजोग्ग . उत्तावेउत्रियरून विउच्वइ) मने तेथे तर जिनेन्द्रनी पासे ४१ योज्य दिव्य उत्तर वैयि शरीरी विष्णु श. (विउवित्ता च उहि अग्ग
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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