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________________ सुबोधिनी टीका. सू. २१ भगवद्वन्दनार्थ सूर्याभस्य गमनव्यवस्था १७७ सारसारोपचितमणीरत्नपाइपीठम् आस्तरकमृदुममूरकनवत्वक · कुशान्तलिम्ब केसरप्रत्यवस्तृताभिरालम् सुविरचितरजतल्याणम् उपचितक्षौपदुकूलपतिच्छादनं रक्तांशुकसंवतं सुरम्यम् आजिनकलतबूरनवनीततूलस्पर्शमृदुकं प्रासा. दीय दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपम् ।। स्मू० २१ ॥ विहग, व्याल, किन्नर, मृग, अष्टापद, चमर-चलरी गाय, हाथी, बनलता" एवं पद्मलता इनकी रचनाओं से अद्भुत था (सारसारोवचियमणिरयणपा. यपीढे) इसके पासं चढने उतरने के लिये जो पादपीठ रखा हुआ था, वह बहुमूल्यमणियों एवं रत्नों से खचित था (अत्थरगमिउमसूरगणवतयकु संतलिंबकेसरपच्चुत्थयाभिराम) इसका गदा मृदु-कोमल आस्तरण · · वस्त्र से युक्त था. गहा के भीलर कोमल के सर जैसा नवीन त्वचा युक्त दर्भो के अग्रभाग अरे हुए थे. इस तरह के मंसूरक-गदा-से यह सिंहासन आच्छादित था अतएव अभिराम था. (सुविरइयरयत्ताणे) बैठने के समयइस पर रजस्त्राणवस्त्र फैलाकर रखा हुआ था (उवचियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे) इस रजस्त्राणवस्त्र के ऊपर एक और जो आच्छादन वस्त्र विछाया जाता था. वह अलसी का बना हुआ था (रत्तसुयसंयुए) मच्छरदानी इस पर. सदा तनी रहती थी (सुरम्से, . आईणगरूयब्रणवणीयतूलफासे, मउएं, पासाईए, दरिसणिजे, अभिरूवे, पडिस्वे) इससे वह बडा रमणीय था जैसा चमर कुजर वणलय पउभलय भत्तिचिन) ते सिंहासन हामृग, वृषभ, मश्व, भास, भ७२, विडा (पक्षी). व्यास (सप), छिन्नर, भृका, मष्टाप- विशेष, यभरચમરીગામ, હાથી, વનલતા અને પદ્મલતા આ સર્વેની રચનાઓથી અદભુત હતું. (सारसारोवचिय मणिरयणपोयपीढे) तेनी पासे यढवा उतारावा माटे २ पाया। भू.तु ते मत वा मणिया ने रत्नाथी ति तु. ( अत्थरग-- मिउममूरगणवतयकुसंतलिंबके सरपच्चुत्थुयाभिरामे ) तेन S५२नी ouी, भूड. કેમલ આતરણ વસ્ત્રથી યુકત હતી. ગાદીની અંદર કેમલ કેસર જેવાં નવીન ત્વચા યુકત દર્ભોના અગ્રભાગ ભરેલા હતા. આ જાતની મસૂરક–ગાદીવડે તે સિંહાસન साहित तु. मेथी ते मालिराम हुतु (सुविरइय रयत्ताणे) मेसवाना समये तेनी ७५२. २०४२मा १७ ॥२४ाहित ४२वामा सावतु . ( उत्रचिय खोमदुगुल्लएपडिच्छायणे) ते २०४ा पवनी ५२ मे या माछाहन ३५२ वर पाथरवामां भावतु तु. ते शनु मनावामा मासु उतुः (रत्तंसुयसंवुए) तेनी - ५२ ६२ मेशा भ२०२४ानी ताdeी mati Pावती ती. (सुरम्मेआईणगरूयबूरणवणीय तूलफांसे; मउए, पासाइए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे, पडिरूवे) मेथी ते दु. ४.
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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