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________________ १४६ राजप्रक्रीयत्र . 'तत्थं णं जेते' इत्यादि-- टीका-तथा-तत्र-तेषु मणिषु ये ते नीला नीलवर्णा मणयः, तेषां खल्ल नीलवर्णानां मणीनोम् अयमेतद्पो-क्ष्यमाणरूपो वर्णावामः-वर्णनपद्धनिः प्रज्ञप्तः स यथानामकः-भृङ्गः-नीलवर्णो भ्रमरः, तथा-शुकः प्रसिद्धः, शुकपिच्छंशुकपक्षः, चापः-पक्षिविशेषः, चापपिच्छं-चापपक्षः, नीली-वनम्पतिविशेषः, नीलीभेदः-नीलीखण्डः, नीलीगुटिका-प्रसिद्धा, श्यामाकम्-अन्नविशेषः, उच्च न्तगो-दन्तरागः, · वनराजी-चनक्ति, हलधरवसनम्-बलदेववस्त्रम्, मय:ग्रोवा-मयरकण्ठः, अतसीकुसुमम्-अनमीपुष्पम्, वाणकुसुमम्-चाणक्षपुष्प. अञ्जन केशिकाकुसुमम्-अञ्जनकेशिका बनस्पतिविशेषस्तत्पुष्पम्, नीलोत्पलनीलकमलम्, नीलाशोकः:-नीलवर्णाशोकक्षः, तथा-नीलबन्धुजीव:- नीलवर्णवन्धुजोषवृक्षः, नीलकरवीरः --नीलवर्णकर्णिकारवृक्षः, नन्नीलवर्णः । टीकार्थ-उन मणियों में जो नीलवण वाले मणि हैं, उन नीलवर्णवाले मणियों का यह इस प्रकार का वर्णावाम-वर्णनपद्धति-कहा गया है. जैसा-नीलवर्ण वाला मुंग-भमर होती है, शुक-तोना होता है, तोते के पंख होते हैं, चाष जाति का पक्षिविशेष होना है, चाप के पंव होने हैं. नोली-नाम का वनस्पतिविशेष होता है, नीलीखण्ड होता है, नीलोगोलो होती है. श्यामाक नाम का अन्नविशेष होता है, उच्चन्तगो-दन्तराग होता है, वनराजी-चनपंक्ति होती है, हलधर-बलदेव का बसनयन्त्र होता है, मयूर का कण्ठ होता है, अलसो का पुष्प होता है, बाणक्ष का पुष्य होता है, अञ्जन केशिका नामक बनम्पति का पुष्प होता है, नीलकमल होता है, नीला अशोक वृक्ष होता है, एवं नीला वन्धुनीवक्ष होता है. तथा नीला कनेर का वृक्ष होता है ऐसा ही नीलवर्ण का नोलामणि होता है। अब · शिष्य यहां पर ऐमा प्रश्न करता है कि श्रृंगादिरूप वर्ण नीलमणियों का ટકાઈ—આ મણિઓમાં જે નીલા રંગવાળા મણિઓ છે, તે નીલારંગ વાળામણિઓના વર્ણવાસ-રંગ-આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યા છે. જે નીલારંગને ભારે હોય છે, શુકપિપટ હોય છે, પોપટની પાંખે હોય છે. ચાષજાતિનું પક્ષિ વિશેષ હોય છે, ચાષની પાંખે હોય છે, નીલી નામની વનસ્પતિ વિશેષ હોય છે, નીલીખંડ હોય છે, નીલળી હોય છે, શ્યામાક નામે અન્નવિશેષ હોય છે, ઉચ્ચત્તો-દંતરાગ હોય છે, વનરાજી-વનપંક્તિ હોય છે, હળદર-બળદેવ–નું વસ્ત્ર હોય છે, મેરની ડોક હોય છે, અળસીનું પુષ્પ, હોય ' છે, બાણવૃક્ષનું પુપ હોય છે, અંજનકેશિકા' નામક વનસ્પતિવિશેષનું - પુષ્પ હોય છે નીલકમળ હોય છે. અશોકવૃક્ષ હોય છે, અને નીલું - - ધજીવ વૃક્ષ હોય છે. હવે અહીં શિષ્ય આ જાતને પ્રશ્ન કરે છે કે
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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