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________________ raterres टीका-अथ मनुष्याणां समाहारादिकमधिकृत्य प्ररूपयितुमाह- 'मणुस्साणं भंते! सव्वे समाहारा ? ' हे भदन्त ! मनुष्याः खलु सर्वे किं समाहाराः - समानाहारा भवन्ति ? भगवानाह - 'गोयमा !' हे गौतम ! 'णो इणट्ठे समट्ठे' नायमर्थः समर्थः - मनुष्याः सर्वे समानाद्वारा इत्येवमर्थो नो युक्त्योपपन्नः, गौतमः पृच्छति - 'से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचड़-मणुस्सा सव्वे नो रामाहारा ?' तत् - अथ केनार्थेन कथं तावत् एवम् उक्तरीत्या उच्यते-‍ - मनुष्याः सर्वे नो समाहारा भवन्तीति ? भगवानाह - 'गोयमा !' हे गौतम ! 'मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता' मनुष्या द्विविधाः प्रज्ञप्ता, 'तं जहा - महासरीराय, अप्पसरीराय' तद्यथा - महाशरीराय, अल्पशरीराव, 'तत्थ णं जे ते महासरीरा ते णं बहुतराए पोगाले आहारैति जाव बहुतराए पोरगले नीससंति' तत्र ५० 3 (तत्थ णं जे ते मिच्छद्दिट्ठी जे सम्मामिच्छद्द्द्दिट्ठी) उनमें जो मिध्यादृष्टि है और जो सम्यगमिध्यादृष्टि हैं ( तेलि नियइयाओ पंच किरियाओ कज्जंति) उनको नियत रूप से पांच क्रियाएं होती हैं (तं जहा- आरंभिया परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्रवाण किरिया, मिच्छामणवत्तिया) वे इस प्रकार - आरं भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानक्रिया, मिथ्यादर्शनप्रत्यया (सेसं जहा नेरयाणं) शेष नारकों के समान । टीकार्थ- अब मनुष्यों के समाहार आदि की प्ररूपणा की जाती है - गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं - हे भगवान् ! क्या सभी मनुष्य समान आहारवाले हैं ? भगवान् हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् ऐसी बात नहीं है। गौतमस्वामी - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सभी मनुष्य समान आहारवाले नहीं हैं ? भगवान् हे गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे हैं, यथा - महाशरीर और (तत्थण जे ते मिच्छादिट्ठि जे सम्मामिच्छद्दिट्ठी) तेयोमा ने मिथ्यादृष्टि छे याने ने सभ्य मिथ्यादृष्टि छे (तेसि नियइयाओ पंच किरियाओ कज्जति) तेभनासां नियत ३५थी पांच डियागो थाय छे (तं जहा- आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाण किरिया, मिच्छादंसणवत्तिया) तेथे का प्रारे-आर लिने, पारिश्राहिडी, भायाप्रत्यया, गप्रत्याण्यान डिया, मिथ्यादृर्शन प्रत्यया (सेसं जहा नेरइयाणं) शेष नारनी समान ટીકા હવે મનુષ્યના સમાહાર આદિની પ્રરૂપણા કરાય છે શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન કરે છે–ડે ભગવન! શું બધા મનુષ્ય સમાન આહારવાળા છે ? શ્રી ભગવાન્—હૈ ગૌતમ ! આ અ સન નથી, અર્થાત એવી વાત છે નહીં. શ્રી ગૌતમ-હે ભગવાન્ શા કારણથી એમ કહેવાય છે કે બધા મનુષ્ય સમાન આહારવાળા નથી ? શ્રી ભગવાન-હે ગૌતમ! મનુષ્ય એ પ્રકારના કહ્યા છે, જેમકે મહાશરીરી અને અપ શરીર ઋતુ વિશાળ કાયાવાળા અને નાની માયાજાળા, મા બન્નેમાંથી જે માણસ
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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