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________________ प्रशापनासूचे. अधः १.सम तेजोगायुर्जेभ्यः, सेनापतिरत्तत्वं गाथापतिरत्न वार्द्धकिरत्नत्वं पुरोहित. रत्नत्वं स्त्रीरत्नलञ्च एवञ्चव, नवरम् अनुत्तरोपपातिक वर्जेभ्यः अश्वरत्नत्वं हस्तिरत्नत्वं रत्नप्रभातो निरन्तरं यावत् सहस्रारात्, अस्त्येको लभेत, अस्त्येको नो लभेत, चक्ररत्नत्वं छत्ररत्नत्वं चर्मरत्नत्वं दण्डरत्नत्वम् असिरत्नत्त्वं मणिरत्नत्वम्, काकिणिरत्नत्वम्, एतेपाम् अनुरकुमारेभ्य आरभ्य निरन्तरं यावद् ईशानाद् उपपात:, शेषेभ्यो नायमर्थः समर्थः ॥९० ८॥ ____टीका-अथ चक्रवर्तिवादीनि द्वाराणि मरूपयितुमाह-'रयणप्पमा पुढविनेरए णं भंते ! अणंतरं उच्चट्टित्ता चट्टित्तं लभेजा ?' हे भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवी नैरयिकः खलु रत्न (लेणावइरयणत्त) सेनापतिरत्नत्व (गाहावहरयण) गाथापतिरत्नत्व (बड्ड इरयणतं) बढइरत्नत्व (पुरोहियरयणतं) पुरोहितरत्नत्व (इत्थिरयणतं)स्त्रीरत्नत्व (च) और (एवं चेव) इसी प्रकार (णवरं अणुसरोदवाइयवज्जेहिंतो) विशेष अनुत्त रौपपातिक को छोड कर के (आसरयणतं हस्थिरयणतं) अश्वरत्नपन, हस्तिरत्नपन (रथप्पभाओ) रत्नप्रभा पृथ्वी से (निरंतरं जाव सहस्सारो) लगातार सहस्त्रार तक (अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए को लभेज्जा) कोइ पाता है, कोई नहीं पाता ___ (चक्षरयणत्तं) चक्ररत्नपन (छत्तरयणतं) छत्ररत्नपन (असिरयणतं) असि रत्नपन (मगिरयणतं) मणिरत्नपन (झागिणिस्थणतं) कामिनीरत्नपन (एतेसिणं) इनका (असुरकुमारहितो) असुरकुमारों से (आरद्ध) आरंभ करके (निरंतरं जाव ईसाणाओ उववाओ) लगातार यावत् ईशान कल्प से उत्ताद होता है (सेसे हितो णो इणढे समढे) शेष से यह अर्थ समर्थ नहीं है। टीकार्थ-अब यह प्ररूपणा की जाती है कि किस-किस पर्याय से आए हए जीव चक्रवर्ती, बलदेव आदि पदधियों के धारक हो सकते हैं ? (सेणावइ रयणत्तं) सेनापतित्नत्व (गाहावइ रयणतं) सायात रत्नाव (वड्ढइ रयणत्त) म न (पुरोहियरयणतं) शहित रत्नत्व (इत्थिरयणतं) स्त्रीरत्नत्व (च) भने एवं चेव) से प्रारे (णवरं अगुत्तरोववाइय वज्जेहितो) विशेष मनुत्तरी५पाति ने छाडान (आसरयणतं हत्थिरयणत्तं) मश्वर पा तिन पा (रयणप्पभाओ) २त्नमा वाथा (निरंतरं जाव सहस्सारो) मविरत सहसार सुधी (अत्थेगइए लभेडा, अत्थेगईए नो लभेज्जा) કેઈ પામે છે કેઈ નથી મેળવવા (चकरयणतं) २४२त्नपा (छत्तरयणत्तं) छत्रनपा (चम्मरयणत्तं) यमरत्न पार (दंढरयणत्त) ६२त्न पा (असिरयणत्तं) मसि २त्नपा (मणिरयणतं) मणिरत्नपा (कागि णिरयणत्तं) मिनी २त्न (एतेसिणं) समना (असुरकुमारेहिंतो) सुभाशथी (आरद्धं) मा म ४शन (निरंतरं जाव ईसाणओ उववाओ) निरन्तर यावत् शान ४८५थी उत्पा थाय छ (सेसेहितो णो इणढे समढे) शेषकी 20 मथ समथ नथी ટીકા-હવે એ પ્રરૂણા કરાય છે કે, ક્યા ક્યા પર્યાય થી આવેલ છવ ચક્રવતી
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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