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________________ प्रमैयबोधिनी टीका पद २० सू० ६ वीन्द्रियोत्पादनिरूपणम् ५३६ उत्पादयेत् ? इन्त, गौतम ! यावद् उत्पादयेत्, यः खलु भदन्त ! आभिनिवोधिकज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानानि उत्पादयेत् स खलु शक्नुयात् शीलं वा यावत् प्रतिपत्तुम् ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, एवम् असुरकुमारेष्वपि यावत् स्तनितकुमारेषु एकेन्द्रियविकलेन्द्रियेपु यथा पृथिवीकायिकाः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेषु मनुष्येषु च यथा नैरयिका, वानव्यन्तर ज्योतिष्क वैमानिकेषु यथा नैरयिकेपु उपपद्यते पृच्छा, भणिता एवं मनुष्येऽपि, वानव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिकेषु यथा असुरकुमाराः ॥ सू०६॥ बोहियणाण सुथणाण ओहिनाणाई उप्पाडेजा ?) वह आभिनिबोधिज्ञान, श्रुत. ज्ञान, अवधिज्ञान को प्राप्त करता है ? (हंता गोयमा ! जाव उप्पाडेजा) हां गौतम ! यावत् प्राप्त करता है (जे णं भंते ! आभिणियोहिय नाणसुयनाणओहि नाणाई उप्पाडेजा) हे भगवन् ! जो आभिनियोधिकज्ञान. श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान को प्राप्त करता है (से णं संचाएजा सीलं वा पडिजित्तए?) वह क्या शील को यावतू अंगीकार करने में समर्थ होता है ? (गोयमा ! णो इणढे लमठे) गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है (एवं असुरकुसारेसु वि) इसी प्रकार असुरकुमारों में भी (जाव थणियकुमारेसु) थावत् स्तनितकुमारों में (एगिदिय विगलिंदिए जहा पुढविकाइया) एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियों में जैसे पृथ्वी कायिक __ (पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेतु य जहा नेरइए) पंचेन्द्रिय तिर्यंची में तथा मनुष्यों में जैसे नैरथिक (वाणमंतर जोइसियवेमाणिएसु) वानव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिको में (जहा लेरइएस) जैसे नारकों में उववजह) उपजता है (पुच्छा) पृच्छा (माणिया) कही (एवं मणुस्ले वि) इसी प्रकार मनुष्य में ते मालिनिमाधिज्ञान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञानने प्राप्त ४२ छ ? (हंता गोयमा ! जाव उपाडेजा डा, गोतम ! यावत् प्रात ४२ छ (जे णं भंते ! आभिणिवोहियनाण सुयणाण ओहिनाणान उप्पाडेज्जा) लावन् । मालिनिमाविज्ञान, श्रुतज्ञान, अधिज्ञान प्राप्त ४२ (से णं संचाएज्जा सीलं वा पडिवज्जित्तए ?) ते शु शासने यावत् 200४२ ४२वामा समय थाय छ ? (गोयमा ! णो इणद्वे समढे) 3 गीतम ! २॥ अथ सपथ नथी (एवं असुरकुमारेस वि) मे ४ारे मसु२४मामा पा (जाव पणियकुमारेसु) यावत् स्तनितारामi. (एगिदिय विंगलिदिएसु जहा पुढविकाइया) मेन्द्रियोमा २१ पृथ्वीय. (पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु य जहा नेरइए) ५येन्द्रिय तिययामा तथा મનુષ્યમાં જેમ નરયિક, વિષે કહેલ છે તે જ પ્રમાણે સમજવું. (वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु) पान०य-त२, न्याति तथा वैमानिमा (जही नेरइएसु) रेभ नाम (उववजइ) ५२ छ (पुच्छा) २४ा (भणिया) ४१ (एवं मणस्से वि) मे रे मनुष्यमा (वाणमंतर जोइसिय वैमाणिएसु जहा असुरकुमारा) पान०यन्तर,
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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