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________________ प्रमेययोधिनी टीका पद १८ सू० ९ सम्यक्त्ववतां सम्यक्त्वकालनिरुपणम् ४२३ पर्यवसितः, यस्तावत् सम्यक्त्वं प्राप्स्यति सोऽनादिसपर्यःसितः, यस्तु सम्यक्त्वं प्राप्यपुनरपि मिथ्यात्वं प्राप्स्यति स सादिसपर्यवहितो र पदिश्यते 'तत्थणं जे से सादीए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुत्तं उक्को सेणं अणंतं कालं' तर-अनाघपर्यवसित-अनादिसपयवसिनसादिसपर्यसताना मध्ये खलु योऽसौ सारिसपर्यवसितो भवति स जघन्येन अन्त. मुहूर्तम् तदनन्तरं सस्यापि पुनः सम्यक्त्ताप्राप्तेः उत्कृष्टे न अनन्तं कालं यावत् सादिसपर्यवसिनो मिथ्यादृष्टिः मिथ्या दृष्टित्वपर्यायविशिष्टः सन् निरन्तरतया अवतिष्ठते, तमेवानन्तकालं द्विधा प्रतिपादयति-'अशंतायो उत्पप्पिणियो सपिणी भो कालो' अनन्ताः उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालत:-कालापेक्षयाऽवसेयाः 'खेत्तभो अबझं पोग्गलपरियष्टुं देखणं' क्षेत्रत:-क्षेत्रापेक्षा अपार्द्धः पुद्गलपरिवतों देशोनोऽवसेयः, अत्र क्षेत्रपदोपादानात् क्षेत्रपुद्गल परावर्त एव परिग्रहीतच्या नतु द्रव्यपुद्गलपरावदियोऽपि, एवमेव पूर्वोत्तरत्रापि विज्ञेयम्, तक मियादृष्टि ही बना रहेगा, जैसे अभव्य जीव, दसरा अनादि सान्त अर्थात् जो अनादि काल से मिथ्यादृष्टि तो है मगर भविष्य में जिसे सम्यक्त्व की प्रासि होगी तीसरा सादि सान्त मिथ्या दृष्टि अर्थात् जो सम्यक्त्व को प्राप्त करने के पश्चात् फिर मिथ्यादृष्टि हो गया है और भविष्य में पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करेगा इन अनादि अनल, अनादि सान्त और सादि सान्त मिथ्याष्टियों में जो सादि सान्त मिथ्यादृष्टि है, वह जघन्य अन्तर्युहूर्त तक मिथ्यादृष्टि रहता है। अन्तईहरी तक मिथ्यादृष्टि रहने के बाद उसे पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है । उत्कृष्ट अनन्त काल तक वह मिथ्यादृष्टि बना रहता है और अनन्त काल व्यतील होने के पश्चात् उसे सस्पवस्व प्राप्त होता है। उस अनन्त काल का दो प्रकार से प्रतिपादन करते हैं-काल की अपेक्षा अनन्त उत्सपिणियां एवं अनन्त अवसर्पिणियां समझना चाहिए । क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्ध पुद्गलपरावर्तन जानना चाहिए। यहां क्षेत्र पद को ग्रहण करने से क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन ग्रहण करना चाहिए, द्रव्धपुद्गलपराइर्तन आदि नहीं। यही बात पीछे और જ બની રહેશે, જેમ અલગ્ય જીવ, બીજા અનાદિયાન્ત અર્થાત્ જે અનાદિકાળથી મિથ્યાદષ્ટિ તે છે પણ ભવિષ્યમાં જેને સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ થશે. ત્રીજા સાદિસાન્ત મિથ્યાષ્ટિ અર્થાત્ જે સમ્યકત્વને પ્રાપ્ત કર્યા પછી પાછા મિયાદષ્ટિ બની ગયા છે અને ભવિષ્યમાં ફરી સમ્યકત્વ પ્રાપ્ત કરશે. આ અનાદિઅનન્ત, અનાદિસાન્ત અને સાદિસાન્ત મિથ્યાષ્ટિમાં જે સાદિસાન મિથ્યાદષ્ટિ છે, તે જઘન્ય અન્તમુહૂર્ત સુધી મિથ્યાદ્રષ્ટિ રહે છે. અન્તર્મુહૂર્ત સુધી મિથ્યાદષ્ટિ રહ્યા પછી તેને ફરી સમ્યકાવની પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે. ઉત્કૃષ્ટ અનન્તકાળ વ્યતીત થયા પછી તેને સમ્યકત્વ પ્રાપ્ત થાય છે. આ અનન્ત કાળ કાળની અપેક્ષાથી અનન્ત ઉત્સપિણિ તેમજ અનન્ત અવસપિણિ સમજવી જોઇએ. ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી દેશોન અપાઈ પુદ્ગલપરાવર્તન જાણવા જોઈએ. અહીં ક્ષેત્રપદને ગ્રહણ
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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