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________________ प्रज्ञापमासू वृक्षविशेषस्य कुमुमम्-पुष्पम् तस्य वर्ण इव वा 'अंजणकेसिया कुसुमे इ चा' अञ्जनके शिकाया:वनस्पति विशेषस्य कुसुमम्-पुष्पस् तस्य वर्णइव वा 'नीलप्पलेइ वा' नीलोत्पलमिति वानीलकमलम् तस्य वर्ण इव 'नीलासोएइ वा नीलाशोक इति वा-अशोक वृक्षविशेष स्तस्य वर्ण इव वा 'नीलकणवीरए इवा' नीलकणवीर:-कणवीरनाम वृक्षविशेष स्तस्य वर्णहर वा, 'नीलबंधुजीवेइ वा' नीलवन्धुजीव इति वा-बन्धुजीव नाम वृक्षविशेषस्तस्य वर्णइव नीललेश्या प्रज्ञप्ता, भगवता भृङ्गादिना नीललेश्या वर्णे प्रतिपादिते सति गौतमः पृच्छति-'मवेयारूवे' हे भदन्त ! भवेत् नीललेश्या एतद्पा -भृङ्गादिरूपा ? भगवानाह-गोयमा !' हे गौतम ! 'णो इणढे समडे' नायमर्थः समर्थः-युक्त्योप पन्नः, तत्र हे तुमाह-एत्तो जाव अमणामयरिया चेव वण्णेणं पण्णता' इत:-भृङ्गादित:-भृङ्गादिवर्णापेक्षयेत्यर्थः यावत्-नीललेश्या खलु अनिष्टतरिका चैव-अतिशयेन अनिष्टा अनभीष्टरेत्यर्थः, अकान्ततरिका चैत्र-अतिशयेन अफमनीया, अप्रियतरिका चैव अतिययेन अप्रिया, अमन ज्ञतरिका चैव-अतिशयेन अमनोज्ञा, अमनआमतरिश चैव-अतिशयेन अमन आमा मनसोऽवाञ्छनीयेत्यर्थः वर्णेन प्रज्ञप्ता, गौतमः पृच्छति-'काउलेस्सा णं भंते ! केरिसिश चण्णेणं पण्ण चा?' हे भदन्त ! कापोतलेश्या खलु कीदृशी वर्णेन प्रज्ञप्ता ? भगानाह-गोयमा !' हे गौतम ! 'से जहा नामए खदिरनामक वृक्ष के पुष्प के समान, अंजन केशिका नानक वनस्पति के पुष्प के समान नीलकमल के समान, नीले अशोक के समान, नीले कनेर के समान तथा नीले यन्धु जीवक के समान नीललेश्या कही गई है। भगवान् के द्वारा भृग आदि के समान नीललेश्या का वर्ण प्रतिपादन करने पर गौतमस्वामी फिर प्रश्न करते हैं-नीललेश्या भृग आदि जैसी होती है ? भगवान्-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि नीललेश्या भृग आदि से भी अत्यन्त अनिष्ट होती है, अकान्ततर, अमियतर, अमनोज्ञतर और अमन आमतरिक होती है। ___ गौतमस्वामी-हे भगवन् ! वर्ण की अपेक्षा कापोतलेश्या किस प्रकार की कही गई है ? અંજનકેશિકા નામની વનસ્પતિના પુષ્પની સમાન, નીલકમળની સમાન, નીલઅશોકની સમાન, નીલકરના સમન, તથા નીલબધુજીવકને સમાન નલલેશ્યા કહેલી છે! શ્રી ભગવાન દ્વારા ભૂગઆદિની સમાન નીલલેશ્યાને રગ પ્રતિપાદન કરતાં શ્રીગીતમસ્વામી ફરી પ્રશ્ન કરે છે-નીલલેથાભંગ રમાદિ જેવી હોય છે? શ્રી ભગવાન હે ગૌતમ! આ અર્થ સમર્થ નથી, કેમકે નીલલેશ્ય ભંગવિગેરેથી પણ અત્યન્ત અનિષ્ટ હોય છે, અકાન્તર, અપ્રિયતર, અમને જ્ઞતર અને અમને આમતविहाय छे. શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન! રંગની અપેક્ષાએ કાતિલેશ્યા કેવા પ્રકારની કહેલી છે ?
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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