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________________ प्रमैयौधिनी टीकः पद १५ सू० ९ इन्द्रियावायादिनिरूपणम् पायाः वक्तव्याः, नवमं द्वारम्-गौतमः पृच्छति-'कइ विहा णं भंते ! इहा पण्णता?' हे भदन्त ! कतिविधा खलु ईहा प्रज्ञप्ता ? भगवानाह-गोयमा!' हे गौतम ! 'पंचविहा ईहा पण्णत्ता'पञ्चविधा इहा प्रज्ञप्ता, तत्र ईइनमीहा सद्भूतार्थपर्यालोचनात्मिका चेप्टा ईहापदेन व्यपदिश्यते तथा चाक्ग्रहात्मक सामान्यज्ञानादुत्तरकालमवायात्पूर्व सद्भूतार्थविशेषापादानाभिमुखो मतिविशेप ईहा पदार्थोऽवसेयः यथा प्रायोऽत्र वेणुवीणादि शब्दधर्माणः मधुरत्वादयो दृश्यन्ते नो कर्कशनिष्ठुरतादयः, इत्यादि, तथाचोक्तत्-'भूयाभूय विसेसादाण चायाभिमुह मीहा'भूतामूतविशेपादानत्यागाभिमुख्यमीहा, इति, 'तं जहा-सोइंदियईहा जाव फासिदियईहा'तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियेहा. यावत्-चक्षुरिन्द्रियेहा, घ्राणेन्द्रियेहा, जिह्वेन्द्रियेहा, स्पर्शनेन्द्रियेहा, 'एवं जाव वेमाणियाणं -एवम्-उक्तरीत्या यावद्-नैरयिकामुरकुमारादि भवनपति पृथिवी और वैमानिको का इन्द्रियावाय यथायोग्य जानना चाहिए । विशेष बात ध्यान में रखने योग्य यह है कि जिस जीव के जितनी इन्द्रियां होती हैं, उसके उतने ही अवाय होते हैं। - नववां द्वार-गौतमस्वामी-हे भगवन् ! ईहा कितने प्रकार की है ? - भगवन्-हे गौतम ! ईहा पांच प्रकार की कही गई है। सद्भूत पदार्थ का पर्यालोचन ज्ञान रूप ईहा है । ईहा ज्ञान अवग्रह के पश्चात् और अवाय से होता है। यह ज्ञान पदार्थ के सदूभूत विशेष धर्म को जानने के लिए अभिमुख होता है, जैसे-यहां मधुरता आदि शब्द के धर्म उपलब्ध हो रहे हैं, कर्कशता, निष्ठरता आदि नहीं, अतः यह शब्द वेणु या वीणा का होना चाहिए। कहा भी है'ईहाज्ञान सद्भूत विशेष को ग्रहण करने और असद्भूत विशेष का त्यागने के लिए अभिमुख होता है।' ईहाज्ञान के पांच भेद इस प्रकार हैं-श्रोत्रेन्द्रिय-ईहा चक्षुरिन्द्रिय-ईहा, घाणेन्द्रिय-ईहा, जिह्नवेन्द्रिय-ईहा और स्पर्शनेन्द्रिय-ईहा। इसी प्रकार नारको વિશેષ વાત ધ્યાનમાં રાખવા એગ્ય આ છે કે જે જીવને જેટલી ઈન્દ્રિયે હેય છે. તેના તેટલા જ અવાય હોય છે. । नभुवार-श्री गौतभस्वाभी-3 लगवन् । डेटा प्रारी छ? . . શ્રી ભગવાન-હે ગીતમ! ઈહિ પાંચ પ્રકારની છે સદ્દભૂત પદાર્થનું પર્યાલચન જ્ઞાન રૂપ ઈહા છે. ઈહા જ્ઞાન અવગ્રહના પછી અને અવાયના પહેલાં થાય છે. આ જ્ઞાન પદાથના સદૂભૂત વિશેષ ધર્મને જાણવાને માટે અભિમુખ થાય છે, જેમકે–અહીં મધુરતા આદિ શબ્દનો અર્થ ઉપલબ્ધ બની રહે છે, કર્કશતા, નિષ્ફરતા આદિ નહિ અતઃ આ શબ્દ વેણ કે વીણાને હવે જોઈ એ. કહ્યું પણ છે કે-ઈહા જ્ઞાન સદ્ભૂત વિશેષને ગ્રહણ કરવા અને અસદુભૂત વિશેષને ત્યાગવાને માટે અભિમુખ થાય છે ઈહા જ્ઞાનના પાચ ભેદ આ પ્રકારે છે-બેન્દ્રિય ઈહા, ચક્ષુરિન્દ્રિય-હિ, ધ્રાણેન્દ્રિય
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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