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________________ प्रयवाचिनी टोपा प १५ ० ८ अतीन्द्रियविशेषविपयनिरूपणम् ६७१ स्पृष्टः, यावद् नो अद्धासमयेन स्पृष्टः, एकोऽजीवद्रव्यदेशः, अगुरुलघुकम् अनन्तैरगुरुकलघुकगुणैः संयुक्तम् सर्वाकाशानन्तभागोनम् । इति इन्द्रियपदस्य प्रथम उद्देशः ॥ ०८॥ - टीका - अतीन्द्रियवक्तव्यता प्रस्तावाबत्तीन्द्रिय विशेषविषयं विंशतितमं द्वारं प्ररूपयितु-माह - 'कंवलसाडेणं अंते ! आवेढिपरिवेढिए समाणे जावइयं वासंतरं फुसित्ताणं चिट्ठ ' गौतमः पृच्छति - हे सदन्त ! कम्वलशाटक:- कम्बलरूपः शाटकः कम्बलशाटकः स खलु अवेष्टित परिवेष्टितः सन् - सवनं गाढतरं संविष्टः सन, यावद् अवकाशान्तरम् - यावत्आकाशप्रदेशान् स्पृष्ट्वा अवगाह्य खलु तिष्ठति 'विरल्लिएवि समाणे तावइयं चेव उवासंतरे - फुसित्ताणं चिgs ?' विरत्रितोऽपि - विरलीकृतोऽपि विश्लिष्टोऽपि सन् किम् तावच्चैवअवकाशान्तरं तावत एत आकाशप्रदेशान् स्पृष्ट्वा - अवगाघ खलु तिष्ठति ? भगवानाह - 'हंता, गोयमा !' हे गौतम ! हन्त - सत्यम्, एतत् 'कंपलसाड एवं थावेदिय परिवेढिए समाणे स्पृष्ट नहीं (जाव नो अद्वातमरणं फुडे) यावत् अद्धासनय से स्पृष्ट नहीं (एगे अजीoवदेसे) एक अजीव द्रव्य का देश है (अगुरुलहुए) वह अगुरुलघु हैं (अनंतेहि अगुरुलहुय गुणेहिं) अनन्त अगुरुलघु गुणों से (संजुत्ते) संयुक्त है. (सव्वागास अनंत भागणे) सम्पूर्ण आकाश के अनन्तयें आग कम (इंदियपयस पदमो उद्देसो) इन्द्रिपद का प्रथम उद्देशक पूर्ण हुआ टीकार्थ-अतीन्द्रिय वस्तुओं की वक्तव्यता का प्रकरण होने से विशिष्ट अतीन्द्रिय विषय संबंधी इक्कीसवें द्वार की प्ररूपणा की जाती है गौतम प्रश्न करते हैं - हे भगवन् ! कम्बल को गुडी-खुडी कर दिया जाय अर्थात् तह पर तह जमा कर लपेट दिया जाय तो यह जितने आकाशप्रदेशों को घेरता है, क्या उतने ही प्रदेशों को फैला देने पर घेरता है ? अर्थात् क्या दोनों अवस्थाओं में बराबर ही आकाशप्रदेशों को अवगाहन करता है ? भगवन्- हां, गौतम ! ऐसा ही है । कम्बलरूप शाटक तह किया हुआ स्पृष्ट नथी. (एगे अजीव दव्व देसे) मेष द्रव्यनो देश हे (अगुरुलहुए) ते ३ लघु छे (अणंतेहि अगुरुलहुयगुणेहिं ) अनन्त अगु३- सघु गुलथी (संजुत्ते) संयुक्त (सव्वागास अनंतभागूणे) सौंपू आधशनो अनन्तभो लाग मोछो ( इंदियपयस्स पढमो उदेसो) र्धन्द्रिय पहने। प्रथम उद्देश युरो थथे। ટીકા –અતીન્દ્રિય વસ્તુની વક્તવ્યતાનું પ્રકરણ હાવાથી વિશિષ્ટ અતીન્દ્રિય વિષય સંબધી એકવીસમા દ્વારની પ્રરૂપણા કરાય છે શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન પૂછે છે-હૈ ભગવન્ ! કાંમળને સકેલીને વાળી દેવાય તે જેઢલા આકાશ પ્રદેશને ઘેરે છે, શું તેને ઉકેલીને ફેલાવામાં આવે તે તેટલા જ આકાશ પ્રદેશને તે ઘેરે ? અર્થાત્ શુ અને અસ્થાઓમા સરખા જ આકારા પ્રદેશને અવગાહુના કરે છે ?
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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