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________________ प्रमैयबोधिनी टीका पद १५ सू० ४ स्पृष्टद्वारनिरूपणम् ६२७ अस्पृष्टानि रूपाणि पश्यति ? गौतम ! ना स्पृष्टानि रूपाणि पश्यति, अस्पृष्टानि रूपाणि पश्यति, स्पृष्टान भदन्त ! गन्धान आनिघ्रति, अस्पृष्टान् गन्धान आजिघ्रति ? गौतम ! स्पृष्टान् गन्धान आजिघ्रति, नो अस्पृष्टान् गन्धान आजिघ्रति, एवम्-रसानपि स्पर्शानपि, नवरम्-रसान् आस्वादयति, स्पर्शान् प्रतिसंवेदयते इति अभिलापः कर्तव्यः, प्रविष्टान भदन्त ! शब्दान शृणोति, अप्रविष्टान् शब्दान् शृणोति ? गौतम ! प्रविष्टान् शब्दान पुट्ठाई सद्दाई सुणे, नो अपुट्ठाई सुदाई सुणेइ) हे गौतम ! स्पृष्ट शब्दों को सुनती है, अस्पृष्ट शब्दों को नहीं सुनती। __ (पुट्ठाई भंते ! रूवाई पासइ, अपुट्ठाई पासह ?) हे भगवन् ! चक्षु स्पृष्ट रूपों को देखती है या अस्पृष्ट रूपों को देखती है (गोयमा ! नो पुट्ठाई रुवाई पासह, अपुटाई रुवाई पासइ) हे गौतम ! स्पृष्ट रूपों को नहीं देखती है, अस्पृष्ट रूपों को देखती है (पुट्ठाई भते गंधाई अग्धाइ, अपुढाई गंधाई अग्घाइ ?) हे भगवन् ! घाण स्पृष्ट गंधों को स्तू घती है या अस्पृष्ट गंधों को सूंघती है ? (गोयमा! पुढाई गंधाई अग्घाइ, नो अपुट्ठाई गंधाई अग्घाइ) हे गौतम ! स्पृष्ट गंध को सूंघती है, अस्पृष्ट गंध को नहीं सूंघती (एवं रसाण वि फासाण वि) इसी प्रकार रसों और स्पर्शो को भी (णवरं) विशेष (रसाई अस्साएइ, फासाई पडिसंवेदेइ त्ति अभिलावो काययो) रसों का आस्वादन करती है और स्पों का प्रतिसंवेदन करती है, ऐसा अभिलाप करना चाहिए। (पविट्ठाई भंते ! सद्दाई सुणेह, अपचिट्ठाई सद्दाई सुणेइ ?) हे भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय प्रविष्ठ शब्दों को सुनती है या अप्रविष्ठ शब्दों को सुनती है ? न्द्रिय २१ शहाने साणे छ मा२ अ५७८ शहाने सालणे छे' (गोयमा ! पुदाई सदाइ, सुणेइ नो अपुढाई सद्दाई सुणेइ) 3 गौतम! स्पृष्ट शहाने सालणे छे. मष्ट शण्टा नया सामती (पुट्राइं भंते | रुवाई पासइ, अपुट्ठाई ख्वाई पासइ) 8 गवन् ! यक्षु स्पृष्ट पोन नवे छ मगर अYष्ट ३पोन वे छे (गोयमा ! नो पुट्ठाई रूवाई पासइ, अपुढाई रुवाइ पासइ) गीतम ! २Yष्ट ३थान नयी भती, अस्पृष्ट ३याने नवे छ (पुदाई भंते ! गंधाई अग्घाइ, अपुट्ठाई गंधाई अग्धाइ) भगवन् । प्राए सपाटा धान सुधे छे म१२ मस्पृष्ट गंधाने सुध छ १ (गोयमा ! पुढाई गंधाई अग्याइ. नो अपुदाई गंधाई अघाइ) गौतम ! स्पृष्ट गन सुध छ, मष्ट गधने नथी संधती (एवं रसाण वि, फासाण वि) मेरी प्रहारे २२॥ भने २५शान पर (नवर) विशेष (रसाई अस्सा. एइ, फासाइं पडिसंवेदइत्ति अभिलावो कायन्वो) २सानु मास्वाहन ४२ छ, भने पनि પ્રતિસ વેદન કરે છે, એ અભિલાપ કહે જોઈએ. (विदाई भंते ! सद्दाई सुणेइ, अपविट्ठाई सदाई सुणेई ) लगवन् ! त्रिन्द्रिय प्रविष्ट होने सालणे छ २०१२ मप्रविष्ट हो सालणे छे १ (गोयमा! पविदाई साइं सणेह,
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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