SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ११ २० ८ भापाद्रव्यग्रहणनिरूपणम् भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'आणुपुब्धि गेण्हइ, नो अणाणुपुचि गेण्हइ आनुपूर्ध्या ग्रहणापेक्षया यथासन्नतया गृह्णाति, नो अनानुपूर्व्या-ग्रहणापेक्षया अयथासनतया गृह्णाति, गौतमः पृच्छति-'जाई भंते ! आणुपुचि गेण्हइ ताई किं तिदिसिं गेण्हइ, जाव छदिसिं गेण्हइ ! हे भदन्त ! यानि भाषाद्रव्याणि आनुपूर्व्या गृह्णाति तानि किम् त्रिदिशि-तिसृभ्यो दिग्भ्य आगतानि, गृह्णाति ? यावत्-किं वा चतुर्दिशि गृह्णाति किं वा पञ्चदिशि गृह्णाति ? किं वा पदिशि गृह्णाति ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'नियमा छद्दिसि गेण्हइ' नियमात्-नियमतः पदिशि-पडूभ्यो दिग्भ्य आगतानि, गृह्णाति. तथाहि-भाषको नियमेन सनांडयां भवति अन्यत्र त्रसकायासंभवात्, सनाडयां च व्यवस्थितस्य नियमेन पड्दिगागतपुद्गलसंभवात, । अथोपयुक्तानामेवार्थानां संग्रहणी गाथामाह- . 'पुट्ठोगाढ अणंतर अश्य तह वायरे य उडमहे ।। - आदि विसयाणु पुचि णियमा तह छदिसि चेव ॥१॥ आसन्नता का उल्लंघन करके ग्रहण नहीं करता। । गौतमस्वामी-हे भगवन् ! जिन भाषाद्रव्यों को आनुपूर्वी से ग्रहण करता है, क्या तीन दिशाओं से आए हुए उन द्रव्यों को ग्रहण करता है ? या चार दिशाओं से, पांच दिशाओं से, अथवा छह दिशाओं से आए हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है ? 'भगवान्-हे गौतम ! नियम से छहों दिशाओं से आए हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। इसका कारण यह है कि भाषक जीव नियम से त्रसनाडी के अन्दर ही होता है, क्यों कि त्रस जीव ही भापक हो सकता है और वह त्रस-. नाडी से बाहर नहीं पाया जाता । और जो जीव वसनाडी में अवस्थित है, वह, छहों दिशाओं से आए हुए पुद्गलों को ग्रहण करता है। _' ऊपर जिन-जिन मुद्दों के विषय में प्रश्न किए गए हैं, उन सब का संग्रह करने वाली गाथा कहते हैं-'पहले स्पृष्टविषयक भाषाद्रव्य की प्ररूपणा की गई.. उसके पश्चात् अवगाढ विषयक, फिर अनन्तरावगाढ विषयक, उसके बाद अणु-. __श्री गौतमश्वाभी- लगवन् । २ लाषा द्रव्याने मानुषी थी यह रे छ, ता . ત્રણ દિશામાંથી આવેલા દ્રવ્યને તે ગ્રહણ કરે છે? અગર ચાર દિશાઓથી, પાંચ દિશા- ", એથી અથવા છ દિશાઓથી આવેલા ભાષા દ્રવ્યને ગ્રહણ કરે છે? , શ્રી ભગવાહે ગૌતમ! નિયમથી છએ દિશાઓથી આવેલા ભાષા દ્રિને ગ્રહણ કરે છે. તેનું કારણ એ છે કે ભાષક જીવ નિયમથી ત્રસ નાડીના અન્તરે જ હોય છે, કેમકે ત્રસ જીવજ ભાષક બની શકે છે અને તે ત્રસ નાડીથી બહાર નથી મળી આવતે. અને જે જીવ ત્રસ નાડીમાં અવસ્થિત છે તે છ એ દિશામાંથી આવેલા પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરે છે. - ઉપર જે જે મુદ્દાઓના વિષયમાં પ્રશ્ન કરાયેલ છે. તે બધાને સંગ્રહ કરનારી'ગાથા प्र० ४७
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy