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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १० सू० ६ संस्थाननिरूपणम् आयतम्, परिमण्डलस्य खलु भदन्त ! संस्थानस्य असंख्येयप्रदेशिकस्य असंख्येयप्रदेशावगाढस्य अचरमस्य चरमाणाञ्च चरमान्तप्रदेशानाञ्च अचरमान्तप्रदेशानाञ्च द्रव्यार्थतया प्रदेशायतया द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा, बहुका वा, तुल्या वा, विशेषाधिका वा? गौतम ! यथा रत्नप्रभायाः अल्पवहुत्वं तथैव निरवशेपं भणितव्यम् , एवं यावत् आयतम् , परिमण्डलस्य खलु भदन्त ! संस्थानस्य अनन्तप्रदेशिकस्य संख्येयप्रदेशाव गाढस्य अचरमस्य गुणा हैं (चरमंतपएसा य अचरभनपएसा य दोषि विलेलाहिया) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों विशेषाधिक हैं (एवं जाव आयते) इसी प्रकार यावत्त आयत संस्थान । *. (परिमंडलस्ल णं भंते ! संठाणस्स असंखिज्जपएलियस्स असंखेज्जपएसो. गाढस्स अचरसस्स चरमाण य चरमंतपएसाणय अचरमंतपएसाण य) भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशों में अवगाड परिमंडल संस्थान के अच. रम, चरमाण, चरमान्तप्रदेशों और अचरमान्तप्रदेशों में (चट्ठयाए पएसट्टयाए ब्वट्ठपएसट्टयाए) द्रव्य से, प्रदेशों से तथा द्रव्य और प्रदेशों से (कयरे कयरेहितो) कोन किससे (अप्पावा, बड्या वा, तुल्ला का, दिखेसाहिया वा?) अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेपाधिक हैं ? (गोयना ! जहा रयणप्पभाए अप्पा बहुयं तहेव निरवसेसं भाणियन्व) गौतम ! जैसे रत्नप्रभा का अल्पवहत्व कहा वैसा ही सम्पूर्ण कहना चाहिए (एवं जाव आयते) इसी प्रकार आयत संस्थान तक । - (परिमंडलस्त णं भंते ! संटाणस्स अणंतपएसियस्त संखेज्जपएसोगाढस्स) हे भगवन् ! संख्यानप्रदेशों में अवगाढ अनन्तप्रदेशी परिमंडल संस्थान के (अचसभ्यात छ (अचरमन्तपएसा संखज्जगुणा) मयरमान्त प्रदेश सभ्यात छ (चरमंतपएसा य अचरमंतपएसाय दोवि विसेसाहिया) य२मान्त प्रदेश मन मन्यमान्त प्रदेश भन्ने विशेषाधि छे (एवं जाव आयते) से ४ारे यावत् मायत संस्थान (परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस संखेज्जपएसियस्स असंखेज्जपएसोगाढस्स अचरमस्स चरमाण य चरमंतपएसाण य अचमतपएसाण य) हे भगवन् असण्यात अशा તેમજ અસંખ્યાત પ્રદેશમાં અવગાઢ પરિમંડલ સંસ્થાનના અચરમ, ચરમાણ ચરમાન प्रहशा भने अयरमा-1 प्रशामा (दचट्याए पएसट्रयाए, दव्वटुपएसट्टयाए) द्रव्यथा, प्रशाथी तथा द्रव्य भने शाथी (कयरे कयरे हितो) नाथी (अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?) म८५, धए); दुख्य मथ विशेषाधित छ ? (गोयमा । जहा रयणप्पभाए अप्पा बहवं तहेव निरवसेस भाणियव्वं) हे गौतम ! २ २त्नप्रसानु म६५ मत्व यु छ ते४ सपूष्णु ४३ नये (एवं जाव आयते) એજ પ્રકારે આયત સ સ્થાન સુધી (परिमंडलरसणं भंते ! संठाणस्स अणंतपएसियस संखेजपएसोगाढस्स) मावा!
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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