SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - १४० , प्रमापनासूत्र स्यात्-कदाचित् चतुष्प्रदेशिका स्कन्धः अवक्तव्यो भवति, यदा चतुष्प्रदेशिकः स्कन्ध एकस्मिन्नाकानप्रदेशेऽवगाहते तदा परमाणुवत् चरमाचरमशब्दाभ्यां वक्तुमशक्यतया अवक्तव्यों वोध्यः, स्थापना ७ सप्तमी वक्ष्यते-परन्तु-'नो चरमाई ४' चतुप्प्रदेशिकस्कन्धो नो चरमाणि' इति व्यपदिश्यते प्रागुक्तयुक्तेः, 'नो अचरमाई ५' नो वा 'अचरमाणि' इति व्य. पदेष्टुं शक्यो भवति, 'नो अवत्तव्ययाई ६' नो 'अवक्तव्यानि' इति वा व्यपदिश्यते 'नो चरमे य अचरमे य ७' नो 'चरमश्च अचरमञ्च' इति वा व्यपदिश्यते, 'नो चरमे य अचरमाई य ८' नो 'चरमश्च अचरमाणि च' इति वा व्यपदेष्टुं शक्यः प्रागुक्तयुक्तेः, किन्तु नवमस्तु भगस्तत्र संघटते एवेत्याह-'सिय चरमाई अचरिमे य' चतुष्पदेशिकः स्कन्धः स्यावकदाचित् , 'चरमौ च अचरमञ्च' इति व्यपदेष्टुं शक्यो भवति, यदा खलु चतुष्पदेशिकस्कन्धस्त्रिषु आकाशप्रदेशेषु वक्ष्यमाणाष्टमस्थापनारीत्याऽवगाहते तदा आद्यन्तप्रदेशावगाढौ द्वौं तीसरा भंग उसमें घटित होता है, अर्थात् वह कथंचित् अवक्तव्य होता हैं, क्यों कि जब वह चौप्रदेशी स्कंध एक ही आकाशप्रदेश में अवगाढ होता है तय परमाणु के सदृश उसे न चरम कहा जा सकता है, न अचरम कहा जा सकता है, अतएव वह अवक्तव्य है। इसकी स्थापना सातवीं आगे कही जाएगी। मगर चौप्रदेशी स्कंध को 'चरमाणि' नहीं कह सकते । इस विषय में युक्ति पहले के ही लमान समझनी चाहिए, उसे 'अचरमाणि' भी नहीं कह सकते, 'अवक्तव्यानि भी नहीं कह सकते । 'चरम-अचरम भी उसे नहीं कहा जा सकता, 'चरम-अचरमाणि' भी नहीं कह सकते । इस विषय में युक्ति पूर्ववतू है । हां, नौवां भंग उसमें घटित होता है, उसे कहते हैं-चौप्रदेशी स्कंध 'चरमौ-अचरम' है, क्यों कि जब कोई चौप्रदेशी स्कंध तीन आकाशप्रदेशों में, आगे कही जाने वाली आठवीं स्थापना के अनुसार अवगाढ होता है, तब आदि और अन्तिम प्रदेशों में अवगाढ दो चरम (चरमौ) होते हैं और मध्य में अवगाढ प्रदेश अचઅવક્તવ્ય હોય છે, કેમકે જ્યારે તે ચતુ દેશી સ્કન્ધ એક જ આકાશ પ્રદેશમાં અવગાઢ થાય છે ત્યારે પરમાણુની સમાન તે નથી ચરમ કહી શકાતે, નથી અચરમ કહી શકાતે તેથી જ તે અવક્તવ્ય છે. એની સ્થાપના સાતમી આગળ કહેવાશે. પણ ચપ્રદેશી સ્કન્ધને 'चरमाणि' नयी ४ी शता. मे विषयमा युति माजना रेभ' सभापी-नये. तेने भयरमाण ५ नथी ही Audt. 'अवक्तव्यानि' ५ नयी ४ी शता. 'थरम-मय२८ पण तेने नयी ४डी शत 'चरम-अचरमाणि' ५ नयी ४डी शो भी मामतभा યુક્તિ પહેલાની જેમજ છે, હા નવમ ભાગ એમાં ઘટિત થાય છે, તેને કહે છે–ચી प्रदेशी २४५, 'चरमो-अचरम' छे, म ज्यारे । यो प्रदेशी २४न्ध माश પ્રદેશમાં, આગળ કહેલી આઠમી સ્થાપનાના અનુસાર અવગાઢ થાય છે, ત્યારે આદિ भने मन्तिम प्रशाथी अवसाद मे २२भ (चरमौ) थाय छे. अने मध्यमांमा प्रदेश
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy