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________________ १३८ प्रतापनास्त्रे तथाहि यदा त्रिप्रदेशिकस्कन्धस्त्रिषु आकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेषु अवगाहते तदा आद्यन्तौ द्वौ परमाणू पर्यन्तवर्तितया चरमौ भवतः, मध्यमस्तु मध्यवर्तित्वेन अचरमो भवति अतस्त्रिप्रदेशिकस्कन्धोऽपि तद्रूपत्वात् 'चरमौ च अचरमश्च' इति व्यपदिश्यते, स्थापना ४ चतुर्थी वक्ष्यते-दशमस्तुभङ्गस्तत्र न संघटते इत्याह-'नो चरमाई च अचरमाई च' नो चरमाणि च अचरमाणि च इति व्यपदेशस्त्रिप्रदेशिकस्कन्धे संभवति, स्कन्धस्य त्रिप्रदेशिकतया चरमाचरमशब्दयोबहुत्वहेत्वभावात् एकादशस्तु भङ्गः संघटते इत्याह-'सिय चरमे य अवतव्वए य' स्यात्-कदाचित् चरमश्च अवक्तव्यश्च त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः समश्रेण्या विश्रेण्या चावगाहते तदा द्वयोः परमाण्वोः समश्रेण्या व्यवस्थितत्वात् द्विप्रदेशविगाढ द्विप्रदेशिकस्कन्धवच्चरमव्यपदेशहेतुभावात् चरमो भवति, एकस्य च परमाणोः विश्रेणिस्थत्वेन चरमाचरमशब्दाभ्या वक्तुमशक्यत्वात् अवक्तव्यो भवति, स्थापना ५ पञ्चमी वक्ष्यते 'सेसा भंगा वडिसेहेयव्या' शेपा:होता है, तब उसके आदि और अन्त के दो परमाणु पर्यन्तवर्ती होने के कारण चरम होते हैं और मध्यम परमाणु मध्यवर्ती होने के कारण अचरम होता है, अतः वह 'चरमौ-अचरम' कहा जाता है। इसकी स्थापना चौथी आगे कही जाएगी। उसमें दशवां भंग 'चरमाणि-अचरमाणि' नहीं घटित होता, क्योंकि तीन प्रदेशों वाले स्कंध में बहुत चरम और बहुत अचरम हो नहीं सकते। ग्यारहवां भंग उसमें घटित होता है। वह यों है-'कथंचितू चरम-अवक्तव्य' जय त्रिप्रदेशी स्कंध समश्रेणी और विश्रेणी में अवगाढ होता है तब उसके दो परमाणु समश्रेणी में स्थित होने के कारण, दो प्रदेशों में अवगाढ द्विप्रदेशी स्कंध के समान चरस कहे जा सकते हैं और एक परमाणु विश्रेणी में स्थित होने के कारण चरम या अचरम शब्दों द्वारा व्यवहार के योग्य न होने से अव. क्तव्य होता है । इसकी स्थापना पांचवीं आगे कहेंगे। शेष भंगों का निषेध શકાય છે. જ્યારે ત્રિપ્રદેશી સ્કન્ધ સમશ્રેણીમાં સ્થિત ત્રણ આકાશ પ્રદેશમાં અવગાઢ થાય છે, ત્યારે તેના આદિ અને અન્તના બે પરમાણુ પર્યન્તવતી હોવાને કારણે ચરમ થાય छ. मने मध्यम ५२भार मध्यवती पाने ॥२२ भन्य२म थाय छे. तेथी ते 'चरमो अचरम' उपाय छे. अनी याथी २थापना मागणवाशे. मामा शभ ‘यरमा અચરમાણિ ઘટીત નથી થતો, કેમકે ત્રણ પ્રદેશેવાળ સ્કન્દમાં ઘણા ચરમ અને ઘણું मयरमा २४i नथी. मगीयारभ। समसभा घटित थाय छे. ते माम छे कथचित् चरम-अवक्तव्य 'न्यारे विदेशी २४न्ध सभश्रेणी मने विश्रेशीमा अवाढ थाय छ ત્યારે તેના બે પરમાણુ સમશ્રેણીમાં સ્થિત હોવાને કારણે બે પ્રદેશમાં અવગાઢ ક્રિપ્રદેશી અન્વના સમાન ચરમ કહી શકાય છે, અને એક પરમાણુ વિશ્રેણીમાં સ્થિત હોવાને કારણે ચરમ અગર અચરમ શબ્દો દ્વારા વ્યવહારને ચગ્ય ન હોવાથી અવક્તવ્ય બને છે. એની સ્થાપના પાંચમી આગળ કહેવાશે. બાકીના ભંગને નિષેધ કહે જોઈએ. આગળ કહેશે ત્રિપ્રદેશ સ્કંધમાં પ્રથમ, તૃતીય, નવમ અને એકાદશ ભંગ મળી આવે છે. તાત્પર્ય
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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