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________________ प्रशापनास्त्रे न्तप्रदेशाः, अवरनान्तप्रदेशाः, असंख्येयगुणाः, चरमान्तप्रदेशाश्च अचरमान्तप्रदेगाश्च द्वयेऽपि विशेपाधिकाः, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया सर्वस्तोकम् अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्या एकम् अचरमम् चरमाण असंख्येयगुणानि, अचरमं चरमाणि च इयान्यपि विशेषाधिकानि, चरमान्तप्रदेशाः असंख्येयगुणाः, अबरसान्तप्रदेशाः असंख्येयगुणाः, चरमान्तप्रदेशाश्च अचरमान्तप्रदेशाश्च द्वयेऽपि विपाविकाः, एवं यावद् अधःसप्तम्याः, सौधर्मस्य यावद् लोकस्य एवञ्चैव ॥२० २॥ ___टीका-अथ पूर्वोक्त रत्नप्रभादिपु प्रत्येकं चरमाचरमादिगतमल्पबहुत्वं प्रस्पयितुमाहभाग पुडधोप) इस्ट रत्नप्रभा पृथिवी के (चरमनपएसा) चरमान्तप्रदेश है (अचरसंतपएसा असंखेज्जगुणा) अचरमान्नप्रदेश असंख्यातगुणा है (चरमंतपदेसा य अचरनंतपदेलाय दोवि बिसेसाहिया) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों विशेषाधिक हैं (दव्वयएसट्टयाए) द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा (सव्व त्योया इनीले रयणप्पभाए पुढवीए एगे अचरिमे) सब से कम इस रत्नप्रभा पृथ्वी का एक अचर मे है (चरलाई असंखेज्जगुणाई) चरमाणि असंख्यातगुणा हैं (अचरिमं चरमाणि य दोवि विसेसायिा) अचरस और चरमाणि-दोनों विशेषाधिक हैं (चनसंपएसा असंखेजगुणा) चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणा है (अचरमनपपला असंन्विज्जगुणा) अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणा हैं (चरमंतपएला य अचरसंतपएसाय दोदि विसेसाहिया) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश देनों विशेषाधिक है (एवं जाव अहेसत्तमाए) इसी प्रकार निचली साली पृथ्वी तक (सोहम्नस्स जाव लोगस्स एवं चेव) सौधर्म यावत् लोक तक हनी प्रकार । टीकार्थ-अब रत्नप्रभा पृथ्वी आदि प्रत्येक के चरम अचरम आदि संबंधी याची माछा (इमीस रचणप्पभाए पुढबीए) मा २त्नप्रभा पृथ्वीना (चरमंतपएसा) २२. भान्त प्रदेश (अचरमंतपासा असंखेजगुणा) अयमात प्रदेश अध्यातमा छ (चरमंतपएनाए य अवरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया) य२मांत प्रहे। मने अय२भान्त प्रदेश मन्ने विशेषाधि छ (दव्य?पएसट्याए) ६०य भने प्रशानी मपेक्षu (सव्व त्योवा इनीसे रयणपभाए पुढवीर गो अचरिमे) धाया माछा मा २त्नपमा पृथ्वीना से सायम ठे (चरमाइं सज्जगुणाइ) य२भाशु मसण्यातग। छे (अचरिमं चरमाणि य दोषि विसमाहिया) भय२म भने यरमा भन्ने विशेषाधि छ (चरमंतपएसा असंखेज्ज गुणा) यभान्त प्रदेश असभ्यातगा। छे (अचरमंतपएसा असखिज्जगुाणा) अयरमान्त प्रदेश मनात छे (चरमंतपएमा य अचरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया) य२. मान्त प्रदेश २ अयभान्त प्रदेश मन्ने विशेषाधि छे (एवं जाव अहेसत्तमाए) मे प्र नायनी सातमी पृथ्वी सुधी (सोहन्मस्स जाव लोगस्स एवं चेव) सौधम यावत् લેક સુધી એ જ પ્રકારે ટીકાર્ય :- હવે રત્નપ્રભા પૃથ્વી આદિ પ્રત્યેકના ચરમ, અચરમ આદિ સંબંધી
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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