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________________ ९३८ जीवाभिगमसूत्रे सन् यावन्महानुभागः वाह्यपुद्गलान् पर्यादाय पूर्वमेव वालं छित्वा भित्वा प्रभुग्रंथयितु किम् इति प्रश्नः भगवानाह-गौतम ! हन्त ! (सपरितोषं गद्गदितस्वरः सन्) प्रभुः समर्थः। कारणसामग्र्याः सम्भवात्-इति । 'तं चेवणं गठि छउमत्थे ण जाणइ ण पासई' तं च खलु ग्रथिं छद्मस्थोऽनतिशायी न जानाति न पश्यति, अयं भावः स च बालोऽन्यो वा तटस्थोऽनतिशायी पुरुषो न जानाति ज्ञानेन न पश्यति चक्षुपा इति केवलं सर्वज्ञ एव जानातीत्यर्थः। 'एवं मुहुमं च णं गंठिया' एवं खलु सूक्ष्मं च तं ग्रथिं देवोग्रपयेत् इति । 'देवे णं भंते ! महिड्रिएं पुवामेव वालं अच्छेत्ता अभेत्ता पभू दीहिकरित्तए वा, हस्सीकरित्तए वा.? नो छेत्ता भेत्ता पभू गंठित्तए' हे भदन्त ! महर्द्धिक यावत् महाप्रभावशाली कोई देव बाहिरी पुद्गलों को ग्रहण करके एवं पूर्वगृहीत शरीर को छेदन भेदन करके क्या उसे वह दृढबन्धन से वांधने के लिये समर्थ हो सकता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'हंता, पभू तं चेव णं गंठिं छउमत्थे ण जाणह' हां गौतम ! महर्द्धिक आदि विशेषणों वाला देव बाहिरी पुनलों को ग्रहण करके एवं पूर्वगृहीत शरीर को छेदन भेदन करके उसे दृढवन्धन से बांधने के लिये समर्थ होता है उस ग्रन्थि को छद्मस्थ नहीं जानता है केवल उसे सर्वज्ञ ही जानता है 'पासंति' और न उसे छद्मस्थ आखों से देखता है केवल उसे सर्वज्ञ ही देखता है है 'एवं सुहुमं च णं गंठिया' ऐसी सूक्ष्म वह अन्थि है 'देवेणं मते ! महिडिए पुवामेव वालं अच्छेत्ता पभू दीहिकरित्तए वा हस्सीकरित्तए' हे भदन्त ! कोई देव जो कि महर्द्धिक आदि विशेદેવ બહારના પુદ્ગલોને ગ્રહણ કરીને અને પહેલાં ગ્રહણ કરેલ શરીરને છેદન ભેદન કરીને શુ તેને દ્રઢ બંધનથી બાંધવા માટે સમર્થ થઈ શકે છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रमुनी ४ छ -हंता, पभू, तं चेत्र णं गठिं छउमत्थे ण ના હા ગૌતમ ! મહદ્ધિક વિગેરે વિશેષણ વાળા દેવ બહારના પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને અને પહેલાં અહણ કરેલ શરીરને છેદન ભેદન કરીને તેને દ્રઢ બંધનથી બાંધવા માટે સમર્થ થાય છે. એ ગ્રન્થિને છસ્થ જાણતા નથી ठेवण सवय १ त त छे. 'ण पासंति' मन छभस्था तनी सांपोथी तन हमतनथी. पण सर्वज्ञ तहणे छे. 'एवं सुहुमं च णं गंठिया' मेवी सूक्ष्म ते गन्थि छ. 'देवेणं भंते ! महिडूढिए पुवामेव वालं अच्छेत्ता पभू दीही करित्तए वा हसी करित्तए' के भगवन् ! ध प है भद्धि विगैरे विशे
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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