SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ.३ सू.१६ विजयद्वारस्य पार्श्व योर्वर्णनम् ६२ . आकाशस्फटिकवदति स्वच्छा यावत् प्रतिरूपाः, 'तेसि णं पगंठगाणं उवरि' तेषां खलु प्रकण्ठकानामुपरि-ऊर्ध्वभागे पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगे पण्णत्ते' प्रत्येकं प्रत्येक प्रसादावतंसकः प्रज्ञप्त:-कथितः, तत्र प्रासादावतंसको नाम प्रासादविशेषः प्रासादा. वतंसक इव शेखरइव भाति यः स प्रासादावतंसकः। 'ते णं पासायवडिसगा' ते खलु प्रासादावतंसकाः, 'चत्तारि जोयणाई उडूं उच्चत्तेणं' चत्वारि योजनानि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन 'दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं' द्वे योजने आयामविष्कम्भेण 'अब्युग्गयमूसिय पहसियाविव' अभ्युद्गतोत्सृत प्रहसिता इच, अभ्युद्गताः-अभि-आभिमुख्येन उद्गता उन्नताः सर्वतो विनिर्गताः उत्सृताः प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रस्ताः धवलत्वेन प्रहसिता इव तिष्ठन्तीत्यर्थः । 'विविहमणिरयणभत्तिचित्ता' विविधमणि• रत्नभक्तिचित्राः, विविधाः-अनेकप्रकारका मणय:-चन्द्रकान्तप्रभृतयः यानि च दो योजन के हैं। 'सव्वररयणामया' ये प्रकंठक सर्यात्मना वजरत्नमय है 'अच्छा जाव पडिरूवा' आकाश और स्फटिक के समान अतिस्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है 'तेसिं णं पगंठगाणं उवरि' इन प्रकंठकों के उपर-ऊर्ध्व भाग में-पत्तेयं२' अलग अलग 'पासायवडेंसगे पन्नते' प्रासादावलंसक कहा गया है। जो प्रासादों के बीच में मुकुट के जैसा प्रतीत होता है, यह प्रासादावतंसक है। 'ते गं पासायवडिंसगा' ये प्रासादावतंसक 'चत्तारि जोयणाई उडू उच्चतेणं' चार योजन के ऊंचे और 'दो जोयणाई आयामविस्खंभेणं दो योजन के लम्बे चौडे कहे गये हैं। 'अन्झुग्गयमूलिय पहसियाविव' ये प्रकंठक अभ्युद्गत प्रभावाले समस्त दिशाओं में फैले हुए से एवं हंसते हुए ले-प्रतीत होते हैं। विविह मणिरयणभत्तिचित्ता अनेक प्रकार की चन्द्रकान्त आदि भणियों की और कर्केतनादि रत्नों की रचना से ये एक रूप हो मा 63 स मारे १०० भय डाय छे. 'अच्छा जाव पडिरूवा' २४१ मने. टिमणिनी भ अ२७-मत्यत नि छ. यावत् प्रति३५ छ. 'तेसिं णं पंगठगाणं उवरि २॥ नी ५२ 'पत्तेय पत्तेय' मा २मस 'पासायवडेंसगे पण्णत्त' प्रासाहावत'स४ ४ामा मावेस छ.२ प्रासाहोमा भुटा पाय छ. ते प्रासाहात स४ उपाय छे. 'तेणं पासायवडिंसगा' से मया प्रासाहात सही 'चत्तारि जोयणाई उड्ढ उच्चत्तणं' या२ योजननी या मने 'दो जोयणाई आयामविस्खंभेग' मे योगननी मा पा ॥ ४॥ छ. 'अन्झुग्गय मसिय पहसियाविव' से मचा है। उन्नत प्रमाण सधणी हिशाम्यामां ६ गयेसा रेवा भने उसता न डाय ते पाय छे. 'विविह मणिरयण भत्तिचित्ता' यन्द्रत विगेरे भायो भने तन विगेरे रत्तो वाणी मन
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy