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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.९२ लवणसमुद्रस्योद्वेधपरिवृद्धिनिरूपणम् ६५७ सम्प्रति-उत्सेधमधिकृत्याह-'लवणे णं भंते ! समुदे केवइयं उस्सेहपरिवुड्डीए पन्नत्ते' हे भदन्त ! लवणः समुद्रः खलु कियान् उत्सेधपरिबृद्धया प्रज्ञप्तः ? अयमाशयः-जंबूद्वीपवेदिकान्तात् लवणसमुद्रवेदिकान्ताच्चाऽऽरभ्य उभयतोऽपि लवणसमुद्रस्य कियत्या मात्रया कियन्ति योजनानि यावत् परिवृद्धिरिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा ! लवणस्स णं समुहस्स उभओ पासिं पंचाणउई पएसे गंता सोलसपएसे उस्सेहपरिवुड्डीए पन्नत्ते' गौतम ! लवणसमुद्रस्य खलु उभयो पार्श्वयोः पञ्चनवति प्रदेशान् गत्वा पोडशप्रदेशाः उत्सेधपरिवृद्धथा प्रज्ञप्ताः । ९५ गव्यूत पर्यन्त क्षेत्र में कितनी गहराई आवेगी? तो इसका उत्तर पूर्वोक्त पद्धति के अनुसार यही है कि एक गव्यूत गहराई आवेगी ९५ धनुष पर्यन्त क्षेत्र में १ धनुष की गहराई आवेगी इत्यादि । 'लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं उस्सेहपरिवुडीए पन्नत्ते' हे भदन्त ! लवणसमुद्र उत्सेध की परिवृद्धि की अपेक्षा कितना कहा गया है अर्थात् जम्बृद्धीप की वेदिका के अन्त से और लवणसमुद्र की वेदिका के अन्त से लेकर दोनों तरफ से लवणसमुद्र की शिखा की कितनी कितनी मात्रा में कितने योजन तक परिवृद्धि है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउर्ति पदेसे गंता सोलसपएसे उस्सेह परिवुडीए पण्णत्ते' हे गौतम ! लवणसमुद्र की दोनों बाजू से ९५-९५ प्रदेश तक जाने पर १६ प्रदेश प्रणाण उत्सेध की शिखा की वृद्धि होती है 'गोयमा ! છે, તે ૫ પંચાણ ગચૂત પર્યન્તના ક્ષેત્રમાં કેટલી ઉંડાઈ આવશે? તે તેને ઉત્તર પૂર્વોક્ત પદ્ધતિ પ્રમાણે એ જ છે કે-એક ગભૂત જેટલી તેની ઉંડાઈ થશે. અને ૯૫ પંચાણ ધનુષ પર્યન્તના ક્ષેત્રમાં ૧ એક ધનુષની ઉંડાઈ આવશે. વિગેરે પ્રકારથી સમજી લેવું. 'लवणेणं भंते ! समुद्दे केवतिय उस्सेहपरिवुड्ढीए पण्णत्ते भगवन् सपा સમુદ્ર ઉભેંધની પરિવૃદ્ધિની અપેક્ષાથી કેટલું છે? અર્થાત્ જંબૂઢીપની વેદિકાના અંતથી તથા લવણ સમુદ્રની વેદિકાના અંતથી લઈને બને બાજુની લવણ સમુદ્રની શિખાની કેટલી કેટલી માત્રામાં કેટલા જન પર્યન્ત પરિવૃદ્ધિ થાય छ ? या प्रश्न उत्तरमा प्रशुश्री गौतभस्वामीन डे छ -'गोयमा ! लवण. स्सणं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउतिं पदेसे गंता सोलसपएसे उस्सेहपरिवुड्ढीए पण्णत्ते' हे गौतम । सव समुद्रनी मन माथी ६५ ५या ६५ पयार પ્રદેશ સુધી જવાથી ૧૬ સોળ પ્રદેશ પ્રમાણે ઉભેંધની શિખાની વૃદ્ધિ થાય जी० ८३
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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