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________________ ४९४ जीवाभिगमसूत्र 'णियया' नियता-७ शाश्वतत्वात् । 'णिच्चमंडिया' नित्यमण्डिता-८ नित्यं भूषणभूपितत्वात् । 'सुभदाय' सुभद्रा च-९ मुष्ठु मंगलं यस्याः । 'विसालाय' विशाला च १० विस्तारवती । 'मुजाया' सुजाता११ शोभनजन्मयुक्ता । 'मुमणीतिया' सुमणीतिका १२ समणिरिवनिर्मलं मनो-मणिर्वा यस्या सा सुमनीतिका प्राकृतत्वाद्रूपसिद्धिः। 'तदेवं सुदंसणाए जंवूए' तदेवं मुदर्शना जम्वा:-'नामधेज्जा दुवालस' इत्थं द्वादशनामानि सार्थकानि। सम्प्रति-सुदर्शनाव्युत्पत्तिं पिपृच्छुराह-से केणटेणं भंते ? तत्केनार्यन भदन्त ? 'एवं बुच्चइ-जंबू सुदंसणा' २ एव मुच्यते जम्बूः सुदर्शनार-इति कि इसे देखने वाले का मन दुष्ट खराव नहीं होता है ७वां नाम नियता है क्योंकि यह शाश्वतिक है ८वां नाम नित्यमंडिता है क्योंकि यह सदा भूषणों से भूषित रहता है । 'सुभदाय' ९वां नाम सुभद्रा है क्योंकि यह मंगलकारी माना जाता है 'विसालाय' १०वां नाम विशाला है क्योंकि यह विशेष विस्तार वाला है ११वां नाम 'सुजाया' सुजाता है क्योंकि यह शोभन जन्म से युक्त है 'सुमणीतिया' और १२वां नाम सुमनीतिका है क्योंकि इससे सुमणि की तरह मन निर्मल हो जाता है प्राकृत होने से इस रूप की सिद्धि हुई है 'तदेवं सुदसणाए जंबूए नामधेजा दुवालस' इस प्रकार से ये जम्बूसुदर्शना के १२ नाम हैं। ____ 'से केणटेणं भंते' एवं बुच्चइ जंबूसुदंसणा २' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि यह जंवूसुदर्शना है ? अर्थात् जंबू सुदर्शना ऐसा नाम होने का क्या कारण है ?-इस प्रश्न के उत्तर દુષ્ટ ખરાબ થતું નથી. હું તેનું સાતમું નામ નિયતા છે. કેમકે તે શાશ્વતિક છે. ૭ તેનું આઠમું નામ નિત્યમંડિતા છે. કેમકે તે સદા આભૂષણથી भूषित २ छ. 'सुभदाय' तेनु नभु नाम सुभद्रा छे. भ. ते मनस ४ारी भनाय छ. ८ 'विसालाय' तेनुसभु नाम विशाल छ. भ. ते विशेष विस्तारपा छे. १० तेनु ११ भु नाम 'सुजाया' सुनता छ, त शासन मन्मथी युत छ. ११ 'सुमणीतिया' मने तेनुसार नाम सुमनीlast છે. કેમકે તેનાથી સુમણિની માફક મન નિર્મળ થાય છે. ૧૨ પ્રાકૃત હોવાથી मा ३पानी सिद्धि थयेटी छ. 'तदेवं सुदंसणाए जंबूए नामज्जा दुवालस' मा પ્રમાણે આ જંબુસુદનાના બાર નામ કહ્યા છે. से केगदेणं भंते ! एवं वुच्चइ जंबूसुदणा जंबूसुदंसणा' में लगवन ! मा५ એવું શા કારણથી કહે છે કે આ જંબુસુદના છે ? અર્થાત્ જંબુસુદના એ પ્રમાણે નામ થવાનું શું કારણ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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