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________________ ३४४ - जीवाभिगमसूत्रे त्मानमलङ्कृतविभूपितं कृत्या, 'दद्दरगलयसुगंधगंधितेहिं गंधेहिं गाताई सुक्किडति' दर्दर मलय सुगन्धितैर्गन्धैर्गात्राणि सुक्रीडति-स्वलङ्करोति, 'मुकिडित्ता'-सुक्रीड्य, 'दिव्वं च सुमणोदामं पिणिद्धति' दिव्यञ्च सुमनोदाम दिव्यां पुप्पमालां पिनह्यति-धारयति, 'तए णं से विजए देवे'-ततः खलु स विजयो देवः 'केसालंकारेण वत्थालंकारेण मल्लालंकारेण आभरणालंकारेण' केशमनोहरकारकेण-अलङ्कारेण, तथा-वस्त्रालङ्कारेण माल्यालंकारेण-आभरणालङ्कारेण, 'चउविहेणें अलंकारेणं अलंकिए विभूसिए समाणे' चतुष्प्रकारकेणाऽलङ्कारेणाऽलडू कृतो विभूषितश्च सन् अत एव-'पडिपुण्णालंकारे' परिपूर्णालङ्कारः 'सीहासणाओ अमुटेइ'-सिंहासनादाभ्युत्तिष्ठते-सिंहासना दुत्थितो भवतीत्यर्थः । 'अब्भुटेत्ता' अभ्युत्थाय, 'अलंकरके 'दद्दरमलयसुगंधगंधितेहिं गंधेहिं गाताई सुक्किडति' फिर उसने दर्दरमलय चन्दन की सुगंधित गंध से अपने शरीर को अलंकृत किया 'सुक्किडित्ता' इस प्रकार से अपने शरीर को अलंकृत करके 'दिव्वं च सुमणोदामंपिणिद्धति' फिर उसने दिव्य पुष्पमाला को पहिरा 'तएणं से विजए देवे' इसके बाद वह विजयदेवने 'केसालंकारेण, वत्थालंकारेणं, मल्लालंकारेण, आभरणालंकारेण चउविहेणं अलंकारेणं अलंकिए विभूसिए समाणे' इस के बाद विजय देव ने केशों को मनोहर करने वाले अलङ्कार से, वस्त्रों को सुहावने जचाने वाले अलङ्कार से, एवं मालाओं को भी अलकृत करने वाले अलङ्कार से और आभरणों को भी विशेष रूप से उद्दीपित करने वाले अलङ्कार से इस प्रकार के चार प्रकार वाले अलङ्कारों से जब वह 'पडिपुण्णालंकारे' सम्पूर्ण रूप से सब अलंकारों को पहिन चुका तब वह 'सीहासणाओ सुगंधगंधितेहिं गाताई सुक्किडति' ते पछी त हरभराय यहननी सुमधामा यहनथी पाताना शरीरने मत यु. 'सुक्किडित्ता' मा प्रमाणे पाताना शरीरने म १२ पाणु मनावीन. 'दिव्वंच सुमणोदामं पिणिद्धति' ते पछी तेणे हत्य सवी पुण्यानी मामा धा२९] ४२री 'तएण से विजए देवे' ते पछी मे विभयहेवे केसालंकारेणं वत्थालंकारेण मल्लालंकारेण आभरणालंकारेण चउ विहेण अलंकियविभूसिए सभाणे' ते पछी वियवे शान सु४२ मनावવા વાળા અલંકારથી વસ્ત્રોને સુંદર લગાડવાવાળા અલંકારથી તેમજ આભૂષણેને પણ વિશેષ પ્રકારથી શેભાવવાવાળા અલંકારથી આ પ્રમાણેના ચાર પ્રકારવાળા माथी पातात दिव्य शत शमायभान री सीधा भने न्यारे 'पडिपुण्णा लंकारे' संपूर्ण पाथी मया । परीसीधा प्यार पछी ते 'सीहास__-- णाओ अभुढेई' सिंहासन परथी जो थयो अभुटूठेत्ता' SL थया पछी ते
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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